20 अक्तूबर 2009

दीपावली की शुभकामनाएँ

दीपावली की शुभकामनाएँ

08 अक्तूबर 2009

गांधीजी की रचना 'हिन्द स्वराज'

गांधीजी की रचना 'हिन्द स्वराज'

निपट देहाती औसत हिन्दुस्तानी की खोपड़ी, चमकती हुई, कभी शरारतपूर्ण तो कभी करुणामय ऑंखें, इकहरी देह के बावजूद सिंह-शावक की सी बौद्धिक चपलता, बेहद पुराने फैशन की कमरखुसी घड़ी, एक सदी पुराने फैशन का चश्मे का फ्रेम, गड़रिए की सी लाठी, सड़क किनारे बैठे चर्मकार के हाथों सिली सेंडिलनुमा चप्पलें, अधनंगा बदन-ये भारत के सबसे महान् योद्धा के कंटूर हैं, जिनसे सात समुन्दर पार भी सूरज अस्त नहीं होने वाले ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हुक्मरानों ने धोखा खाया.
अपने बचपन से मुझे गांधी कभी बूढ़े, लिजलिजे या तरसते नहीं लगे। दहकते प्रौढ़ अंगारों के ऊपर पपड़ाई राख जैसा उनका पुरुष व्यक्तित्व बार-बार लोगों को प्रश्नवाचक चिन्ह की कतार में खड़ा करता रहा। प्रचलित समझ के विपरीत मैंने गांधी को ऋषि, संत, मुनि या अवतार जैसा नहीं देखकर करोड़ों भारतीय सैनिकों के युयुत्सु सेनापति के रूप में देखा है।

मुझे गांधी के अन्य रूपों में न तो दिलचस्पी रही है और न ही वे मेरी गवेषणा के विषय बने हैं। गांधी की याद को पुन: परिभाषित करना साहसिक, रूमानी और मोहब्बत भरा काम है। यह तो सरल है कि उन्हें प्रचलित अर्थ में ही समेटा जाए और बार-बार गांधी को ऐसी सोहबत में बिठाया जाए जिससे उन्हें उद्दाम समुद्र या तेज तरंगों में बहते किसी महानद के मुकाबले छोटा सा तालाब बनाया जाए. इस तरह के गांधी-यश से सडांध की बू आने लगी है. लोग गांधी क्लास में पास होने, एक गाल पर थप्पड़ खाने के बाद गांधी शैली में दूसरा गाल सामने करने और सुसंस्कृत जीवन के हर छटा-विलोप में गांधी दर्शन दिखाकर उसका इतना मजाक उड़ा चुके हैं कि इस बूढे आदमी के साथ रहने में मन वितृष्ण हो जाता है. भारतीय लोकतंत्र के जनवादी आन्दोलन के संदर्भ में मिथकों के नायक राम और कृष्ण के बाद कालक्रम में तीसरे स्थान पर गांधी ही खड़े होते हैं, कई अर्थों में उनसे आगे बढ़कर उन्हें संशोधित करते हुए. इस देश में ऐसा कोई व्यक्ति पैदा नहीं हुआ जिसने गांधी से ज्यादा शब्द बोले हों, अक्षर लिखे हों, सड़कें नापी हों, आन्दोलनों का नेतृत्व किया हो, बहुविध आयामों में महारत हासिल की हो और फिर लोक-जीवन में सुगंध, स्मृति या अहसास की तरह समा गये हों. शंकराचार्य, अशोक, बुद्ध, अकबर, तुलसीदास, कबीर जैसे अशेष नाम हैं जो भारतीय-मानस की रचना करते हैं. लेकिन गांधी केवल मानस नहीं थे. कृष्ण के अतिरिक्त हिन्दुस्तान के इतिहास में गांधी ही हुए जो प्रत्येक अंग की भूमिका और उपादेयता से परिचित थे. ऐसे आदमी का किंवदन्ती, तिलिस्मी या अजूबा बन जाना भी सम्भव होता है. मोहनदास करमचन्द गांधी को इस अज्ञान की साजिश से बचाना भी एक सामूहिक कर्तव्य है. मैं गांधीवादी नहीं हूँ. यह कहने में मैं सत्य के अधिक निकट होता हूँ. गांधी मेरी पसंद की अनिवार्यता या नियति नहीं हैं. उनके विचारों की तह में जाना, उनके प्रखर कर्मों के ताप झेलना और उनका वैचारिक परिष्कार करना शायद किसी के वश में नहीं है. गांधी का पुनर्जन्म यदि हो जाये तो शायद उनके वश में भी नहीं. ऐसा लगता है कि गांधी एक घटना की तरह पैदा हो गये और अस्सी वर्ष के लम्बे जीवन में लगातार विद्रोह करते-करते उल्कापात की तरह गिरे. गांधी भारत की आधी बीसवीं सदी का पर्याय रहे हैं. उसके पूर्वार्द्ध के कम से कम आखिरी तीस वर्ष लिहाफ की तरह हिन्दुस्तान के सियासी, बौद्धिक और सामाजिक जीवन को गांधी ही ओढ़े रहे. यह व्यक्ति अन्तर्राष्ट्रीय इतिहास का एक फेनोमेना है जिसको समझने की कोशिश करना धुएँ को अपनी बाहों में भरना है 1909 में लंदन से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए पानी के जहाज पर सम्पादक पाठक संवाद के रूप में गांधी ने एक कालजयी कृति लिखी. उस समय के हिन्दुस्तानियों के हिंसावादी पंथ और उसी विचारधारा वाले दक्षिण अफ्रीका के एक वर्ग को दिये गए कथित जवाब में लिखी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ है. यह एक लेखमाला के रूप में ‘इण्डियन ओपिनियन’ नामक पत्र में गुजराती में दक्षिण अफ्रीका में प्रकाशित हुई.
दरअसल मुकम्मिल आज़ादी की कल्पना के पहले गांधी ने 1891 से 1894 के बीच दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले भारतीयों की तरफ से लिखी गई कई याचिकाओं में आज़ादी का खुद के विचार का खाका खींचा था. हो सकता है ‘हिन्द स्वराज’ उसका संशोधित रूप हो. इस पुस्तक के भारत में गुजराती संस्करण के प्रकाशित होते ही बम्बई में ब्रिटिश सरकार ने जब्त कर लिया था. जवाहरलाल नेहरू ने बाद में इस किताब में व्यक्त विचारों को भ्रम पैदा करने वाले और अव्यावहारिक कहकर उससे असहमति व्यक्त की थी. लेकिन गांधी ने स्वयं गुजराती ‘हिन्द स्वराज’ का अंग्रेजी अनुवाद किया और प्रकाशित कराया. उसे भी ब्रिटिश सरकार ने आपत्तिजनक बताकर जब्त कर लिया. 1915 में महात्मा गांधी जब दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे तो उन्होंने सबसे पहले ‘हिन्द स्वराज’ को फिर से प्रकाशित करवाया. तब सरकार ने इसे जब्त नहीं किया. ‘हिन्द स्वराज’ को गांधी ने आधुनिक सभ्यता की समालोचना के रूप में प्रचारित किया था. उन्होंने लगातार यही कहा कि पश्चिमी सभ्यता के संबंध में मेरे मूलभूत विचार यही हैं जो इस पुस्तक में उन्होंने व्यक्त किये हैं.
उन्होंने साफ कहा था कि “ यह किताब ऐसी है कि यह बालक के हाथ में भी दी जा सकती है. यह द्वेष-धर्म की जगह प्रेम-धर्म सिखाती है. हिंसा की जगह आत्म बलिदान को रखती है. यह पशुबल से टक्कर लेने के लिए आत्मबल को खड़ा करती है.” ‘हिन्द स्वराज’ में भारतीय स्वतंत्रता का जनपथ विस्तृत है. आज़ादी के साठ वर्ष बाद जब हम इस किताब के माध्यम से संघर्षशील हिन्दुस्तान की आज़ादी की जद्दोजहद को देखते हैं तो हमें ऐसा लगता है कि महापुरुषों की भीड़ में गांधी ध्रुवतारे की तरह अकेले निर्विकार लेकिन हठधर्मी मुद्रा में मील का पत्थर बनकर खड़े हैं. कम से कम आज़ादी के मिलने के तीस बरस पहले से गांधी और हिन्दुस्तान एक-दूसरे के समानार्थी रहे हैं. इस निष्कलंक कृति के माध्यम से गांधी ने आज़ादी की लड़ाई के सभी योद्धाओं से अलग हटकर कुछ बुनियादी सवाल हमारी चेतना की छाती पर छितराये हैं. ये सवाल आज भी वैसे ही मुँह बाए खड़े हैं. ‘हिन्द स्वराज’ महात्मा गांधी के नैतिक और राजनीतिक विचार ऊर्ध्व का भी शिखर है जिसकी बुनियाद (तत्कालीन) आधुनिक सभ्यता की कठोर समीक्षा में है. लगभग बौद्धिक प्रतिहिंसा की शक्ल में गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में पुस्तिका का अंग्रेजी संस्करण भी प्रकाशित कराया. उन्होंने एक प्रति तॉल्सतॉय को भी भेजी. 20 अप्रेल 1910 को अपनी डायरी में तॉल्सतॉय ने लिखा “ आज सभ्यता के बारे में गांधी को पढ़ा. अद्भुत है.” जिन गोखले को गांधी अपना राजनीतिक गुरु कहते थे, उन्होंने 1912 में ही ‘हिन्द स्वराज’ को हड़बड़ी में लिखी गई भोंडी किताब करार देते हुए यही कहा कि आगे चलकर गांधी इसे खुद खारिज कर देंगे. नवजीवन ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित ‘हिन्द स्वराज’ की भूमिका में महादेवदेसाई ने लिखा था: “ गोखलेजी 1912 में जब दक्षिण अफ्रीका गये, तब उन्होंने वह अनुवाद देखा. उन्हें उसका मजमून इतना अनगढ़ लगा और उसके विचार ऐसे जल्दबाजी में बने हुए लगे कि उन्होंने भविष्यवाणी की कि गांधीजी एक साल भारत में रहने के बाद खुद ही पुस्तक का नाश कर देंगे.” लेकिन अपने विचारों को दिन प्रतिदिन के आधार पर उत्तरोत्तर विकसित करने वाले महात्मा गांधी ने आश्चर्यजनक रूप से वर्षों बाद भी ‘हिन्द स्वराज’ के पाठ को संशोधित तक नहीं किया. सिवाय इसके कि 'बेसवा' (वेश्या) नामक शब्द को उन्होंने अपनी एक अंग्रेज महिला मित्र (शायद एनी बेसेंट) के कहने पर हटाने की सहमति दी थी. “ इसकी अनेक आवृत्तियां हो चुकी हैं; और जिन्हें इसे पढ़ने की परवाह है उनसे इसे पढ़ने की मैं ज़रूर सिफ़ारिश करूंगा. इसमें से मैंने सिर्फ एक ही शब्द-और वह एक महिला मित्र की इच्छा को मानकर-रद्द किया है; इसके सिवा और कोई फेरबदल मैंने इसमें नहीं किया है.”
गांधी कहते हैं कि इस पुस्तक में वर्णित विचार उनके हैं भी और नहीं भी. वे इसलिए उनके हैं क्योंकि गांधी उनके अनुरूप आचरण करना चाहते हैं.
1938 में प्रसिद्ध अंग्रेज विद्वान मिडिलटन मरे ने इस कृति को एक आध्यात्मिक क्लासिक करार देते हुए उसे आधुनिक युग की सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक घोषित किया। लार्ड लोथियान ने कहा “यही वह पुस्तक है जिसमें पूरा गांधीवाद छन छन कर उतर गया है।” ‘इंडियन ओपिनियन’ के गुजराती पाठकों के लिए ‘हिन्द स्वराज’ एक भूचाल की तरह था क्योंकि उसकी भाषा बेलाग और तर्क बेहद धारदार थे. पुस्तक के लिखने के दो वर्ष पूर्व ही गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में निष्क्रिय प्रतिरोध का आंदोलन शुरू किया था. वह आंदोलन मोहनदास गांधी के आंतरिक व्यक्तित्व में उठ रहे ज्वालामुखी के प्राथमिक संकेतों संवेगों की तरह था. ‘हिन्द स्वराज’ गांधी के राजनीतिक अस्तित्व का पहला पुख्ता और विश्वसनीय पड़ाव था. कहने को तो वह उनको इंग्लैंड में मिले हिंसक आंदोलनों के समर्थकों से हुई असहमतियों का प्रतिक्रियात्मक ब्यौरा था लेकिन अचानक उसमें पश्चिम की पूरी भौतिकवादी सभ्यता को लेकर एक उभरते हुए राजनीतिक विचारक के तेवर समाहित हो गये थे. इंग्लैंड के लोगों या मान्य परंपराओं के विरुद्ध गांधी का हमला भोंडा नहीं था क्योंकि उन्हें अंग्रेज कौम की अच्छाइयों का भी ज्ञान था. ‘हिन्द स्वराज’ साम्राज्यवादी मान्यताओं के परखचे उखाड़ने की एक ऐसी आधुनिक मानव मशीन का उत्पाद है, जो मशीन को मानव के लिए बेहद गैर जरूरी मानता हो, जब तक कि उसका मशीनों पर कोई निर्णयात्मक नियंत्रण नहीं हो. अंगरेजी भाषा का कम्युनिकेशन (प्रेषण) में इस्तेमाल करने में गांधी को (मातृभाषा गुजराती में लेकिन ज्यादा) इसलिए महारत हासिल होती जा रही थी क्योंकि ‘आधी गुप्त, आधी प्रकट शैली’ (half concealing, half revealing) के छद्म इस भाषा में बहुत हैं. शायद इसलिए भी गांधी कहते हैं कि इस पुस्तक में वर्णित विचार उनके हैं भी और नहीं भी. वे इसलिए उनके हैं क्योंकि गांधी उनके अनुरूप आचरण करना चाहते हैं. इसलिए वे उनके जीवन का अंग भी हैं. वे विचार गांधी के नहीं भी हैं क्योंकि गांधी मौलिकता का दावा नहीं करते. गांधी कहते हैं “ जो विचार यहां रखे गये हैं, वे मेरे हैं और मेरे नहीं भी हैं. वे मेरे हैं, क्योंकि उनके मुताबिक बरतने की मैं उम्मीद रखता हूं; वे मेरी आत्मा में गढ़े-जड़े जैसे हैं. वे मेरे नहीं हैं, क्योंकि सिर्फ मैंने ही उन्हें सोचा हो सो बात नहीं. कुछ किताबें पढ़ने के बाद वे बने हैं. दिल में भीतर ही भीतर मैं जो महसूस करता था, उसका इन किताबों ने समर्थन किया.” ‘हिन्द स्वराज’ में वर्णित विचार उन बहुत से मनीषियों की पुस्तकों को पढ़ने के बाद किसी कड़ाह में उबाले गये रसायन के घोल की तरह गांधी की आत्मा की परतों को चीरकर समा गये थे. अपनी पुस्तक के अंत में गांधी कुछ पठनीय कृतियों की सिफारिश भी करते हैं. इनमें प्लेटो, मैजिनी, रस्किन, थोरो, हेनरी मेन, दादाभाई नौरोजी, एडवर्ड कारपेन्टर, तॉल्स्तॉय और मैक्स नार्दू वगैरह शामिल हैं.
मूलत: गुजराती में लिखित कृति के अंत में गांधी ने तॉल्सतॉय, थोरो, रस्किन, मैजिनी, एडवर्ड कारपेंटर, प्लेटो, दादाभाई नौरोजी, रमेशचन्द्र दत्त जैसे लेखकों की रचनाओं के कुछ अंश भी उद्धृत किये। इसका उद्देश्य अपने स्वानुभूत सत्यों के साथ युग-प्रवर्तक विचारकों के जीवन दर्शन का तादात्म्य स्थापित करना था. उसमें ‘पाठक’ और ‘सम्पादक’ के बीच हुए बीस वार्तालापों का विवरण है. उसमें भारत-इंग्लैंड, सभ्यताएँ, स्वराज, हिन्दू-मुस्लिम एकता, कानून और शिक्षा आदि ज्वलंत विषयों पर लेखक के बहुचर्चित विचारों का समावेश है. भूमिका में राजगोपालाचारी ने लिखा, “ अपनी मातृभूमि के लिए कोई पुनर्निर्माण या आशा करना व्यर्थ है, जब तक हम शक्ति की उसके हर रूप में पूजा करते रहेंगे और हिंसा के स्थान पर अन्य किसी आधार पर अपनी कार्यविधि प्रस्थापित नहीं कर लेंगे. हिंसा के सिद्धान्त का परित्याग देश की वर्तमान परिस्थिति के संदर्भ में आज पहले से कहीं आवश्यक है.” अपने जीवन के शेष चालीस कर्मठ वर्षों में गांधी का वैचारिक व्यक्तित्व ‘हिन्द स्वराज’ में व्यक्त अपनी अवधारणाओं का परिमार्जन और परिशोधन ही करता रहा. उनके राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षणिक और आध्यात्मिक चिन्तन के प्रेरणा तत्व ‘हिन्द स्वराज’ में मौजूद थे‘हिन्द स्वराज’ की भूमिका में गांधी ने बेलाग होकर स्वीकार किया है कि यद्यपि कृति में उनके ही विचार हैं, फिर भी वे मौलिकता का दावा नहीं करते. गांधी के अनुसार भारतीय दर्शन के अतिरिक्त तॉल्स्तॉय, रस्किन, थोरो और एमर्सन जैसे लेखकों का उन पर गहरा असर रहा है. तॉल्स्तॉय को तो उन्होंने अपना गुरु ही घोषित किया है. उन्होंने लिखा कि पुस्तक को पढ़ते वक्त पाठक को इन महान लेखकों की कृतियों में व्यक्त विचारों से समानता नजर आएगी. श्लेष, यमक और अन्योक्ति जैसे अलंकारों की छटा बिखेरते हुए गांधी ने कहा कि पुस्तक में उनके विचार इस अर्थ में हैं कि वे उन पर आचरण करेंगे. ये इस अर्थ में उनके नहीं भी हैं क्योंकि ये विचार मौलिक नहीं हैं बल्कि कई महान लेखकों की अनेक पुस्तकों को पढ़ने के बाद सूत्रबद्ध हुए हैं. गांधी को यह आत्मविश्वास था कि भारत में ऐसे बहुतेरे लोग होंगे, जो उनके विचारों से इत्तफाक रखते होंगे और उन्हें मौजूदा पश्चिमी सभ्यता से कोफ्त होगी. उन्होंने यह भी कहा कि भारत ही क्यों यूरोप में ही हजारों ऐसे लोग हैं जिन्हें पश्चिमी सभ्यता के घातक तेवरों से पूरी तौर पर परहेज है. करोड़ों हिन्दुस्तानी और लाखों यूरोपीय वे बौद्धिक मतदाता थे जिनके वैचारिक निर्वाचन क्षेत्र में जाने से गांधी अपने चुने जाने के प्रति आश्वस्त थे ही, अपने प्रभाव क्षेत्र को इन प्राथमिक और बुनियादी वैचारिक मतदाताओं के समर्थन से बढ़ाना भी जानते थे. यहां पर गांधी अपने तेज दिमाग के सयानेपन (shrewdness) का भी इस्तेमाल करते हैं. वे तत्कालीन यूरोप की जनता और पश्चिमी सभ्यता के रसूखदार शासकों में भेद करते हैं. गांधी जानते थे कि ब्रिटेन के उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद तथा रूस की जारशाही की धमाचौकड़ी में जॉन रस्किन और तॉल्स्तॉय जैसे विचारकों की आवाज तूती की तरह बना दी गई है, जबकि ऐसे मानस-पुत्र ही यूरोपीय सभ्यता के वास्तविक प्रज्ञा-पुरुष हैं. इसलिए आधुनिक सभ्यता के खिलाफ संघर्ष का गांधी-आव्हान केवल एक भारतीय की मौलिक चुनौती नहीं है, बल्कि वह यूरोप के प्रसिद्ध विचारकों के चिंतन-निचोड़ पर आधारित भारतीय शैली में पगी हुई बौद्धिक रणनीति का कायिक प्रदर्शन है. यह कूटनीति किसी लोकप्रिय नेता के कार्यालय के टकसाल में गढ़ा हुआ सिक्का नहीं था बल्कि उसे मोहनदास करमचंद गांधी जैसे कद्दावर काठी के बौद्धिक नेता की आत्मा की धमन भट्ठी में पकाकर मूल्य-युद्ध में इस्तेमाल किया गया था.
परिशिष्ट में संदर्भित तॉल्स्तॉय की 4, थोरो की 2 और रस्किन, प्लेटो तथा मैजिनी की एक-एक किताब में भारतीय जनजीवन का कोई विवरण या वर्णन नहीं है। ऐसे में भी जो विर्मश गांधी उपस्थित करते हैं, वह मनुष्य मात्र की समस्याओं के लिए उपजता है, केवल भारत के लिए नहीं. यह जरूर है कि गांधी रमेशचन्द्र दत्त की ‘इकॉनॉमिक हिस्ट्री ऑफ इण्डिया’, हेनरी मेन की ‘विलेज कम्युनिटीज’ और एडवर्ड कारपेन्टर की ‘सिविलाइजेशन: इट्स कॉज़ एण्ड क्योर’ को भी संदर्भित करते हैं, जिनसे भारतीय समस्याओं को बूझने में गांधी को मदद मिली है. तॉल्स्तॉय ने उन्हें कुंजी दी थी कि लेखक का मकसद होना चाहिए कि हम कैसे जिएं. इस साधारण से वाक्य में बीजगणित का जो सूत्र है, उसे ही गांधी ने धरती की उर्वर कोख का बीज बनाकर एक वैचारिक वटवृक्ष दुनिया के हवाले किया. इसलिए ‘हिन्द स्वराज’ को केवल भारतीय समस्याओं के संदर्भ का एक राष्ट्रीय दस्तावेज करार दिए जाने से गांधी सबसे महान आधुनिक भारतीय नियामक के रूप में भले ही पेटेंट कर दिए जाएं, लेकिन उससे ‘हिन्द स्वराज’ की हेठी होती है. विचार फलक पर यह पुस्तक नई दुनिया की नई बाइबिल की तरह नैतिक है

‘हिन्द स्वराज’ लेकिन हिंसक क्रांतियों के प्रस्तोताओं और प्रवक्ताओं को दिया गया अहिंसक ढांचे का उत्तर मात्र नहीं है और न ही वह गांधी के द्वारा चुनिंदा पढ़ी गई किताबों की शिक्षाओं के निचोड़ का अंगीकार दर्शन है. पुस्तक के क्रमिक विकास के साथ साथ गांधी में दक्षिण अफ्रीका प्रवास के पिछले चौदह वर्षों के संघर्ष के धरातल पर खड़े होकर उस प्रखर तार्किक दर्शन के कंटूर उगने लगते हैं, जो आगे चलकर पूरी पश्चिमी सभ्यता को जड़ से उखाड़ फेंकने का पूरी दुनिया में सबसे व्यापक और महत्वपूर्ण आव्हान करता है. एक ऐसा आव्हान जो उन करोड़ों कंठों का नित्य गायन है, जो उस सभ्यता के दंश से पराजित होने के बावजूद शायद क्लैव्य की मुद्रा में मर जाते-यदि गांधी इस दुनिया में नहीं आते. इसके पहले गदहपचीसी की उम्र में ही गांधी ने एक गंभीर विचारक की शक्ल ओढ़ते हुए दक्षिण अफ्रीका में पश्चिमी साम्राज्यवादी सभ्यता की जी भरकर निंदा की थी कि वह आधुनिक सभ्यता धन दौलत के पीछे पागलों की तरह दौड़ने वाली और धन दौलत को उड़ाने और इकट्ठा करने के बावजूद मनुष्य की आत्मा और उसके जीवन की बेहतरी का सबसे बड़ा रोड़ा है. एक दशक बाद पेरिस में हुए भयानक अग्निकांड की गांधी ने उसी तरह निंदा की थी जैसे लिस्बन में हुए भूकंप की व्यापारिक पृष्ठभूमि की बुराई तॉल्सतॉय ने की थी. गांधी को महसूस हुआ कि आधुनिक सभ्यता की चकाचौंध के नीचे एक त्रासदी छिपी हुई है. उन्होंने कहा कि पूंजीवादी प्रवृत्तियों की अंधी दौड़ में सब कुछ व्यतीत कर उसे पूरी तौर पर भुला दिया जाता है. विज्ञान की तरक्की और सभ्यता की उपलब्धियों वगैरह से संघर्षरत मानवता को कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है. गांधी के निष्कर्ष उनके पूर्ववर्ती यूरोपीय विचारकों से प्रभावित होने के बावजूद काफी अलग और मौलिक भी थे. वे कहते थे- हम सब इस धरती पर यायावर तीर्थ यात्रियों की तरह हैं. हम अनंत आत्माएं हैं परंतु जीवन की परिवीक्षा अवधि में हैं. इसलिए जो कुछ अस्थायी है, उसके उत्कर्ष का कोई भी सफल सिद्धांत स्थायित्व के समीकरण को बूझने में असमर्थ होगा. 10. ‘हिन्द स्वराज’ गांधी वांग्मय की अकेली पुस्तक है, जिसके मूल गुजराती भाष्य का गांधी ने स्वत: अंग्रेजी में अनुवाद किया था. अपनी ‘आत्मकथा’ तक को बापू ने अनुवाद के लिए अपने ‘बॉसवेल’ महादेव देसाई के भरोसे छोड़ दिया था. इस अर्थ में ‘हिन्द स्वराज’ बापू के लिए ‘आत्मकथा’ से भी बढ़कर उनका विश्वसनीय फलसफा है बल्कि व्यवहार्य ‘टेन कमांडमेंट्स’ है. अनुवाद के सामने यह संकट होता है कि उसमें मूल आलेख की आत्मा नहीं भी उतरती है. लेकिन यह फिकरा ‘हिन्द स्वराज’ पर लागू नहीं होता. ‘हिन्द स्वराज’ का अंगरेजी पाठ गांधीकृत होने से मूल पाठ ही है. गांधी ने इसीलिए अनुवाद कराने का जोखिम नहीं उठाया होगा. अंग्रेजी भाषा और मुहावरों में लगभग वही बात लिखी है जो गुजराती के मूल कथन में है. संभवत: इसलिए किसी द्विभाषी पाठक ने भी यह जहमत नहीं उठाई होगी कि वह इस बात को परखे कि क्या गांधी का अनुवाद मूल पाठ का पुनर्लेखन है अथवा अनुवाद मात्र. अंग्रेजी का भाष्य ही तॉल्स्तॉय, रोम्या रोलां, जवाहरलाल नेहरू और राजाजी वगैरह ने पढ़ा था और टिप्पणियां की थीं. गांधी खुद इसी अंग्रेजी पाठ को पूरे जीवन अपने विचार प्रवर्तन में खंगालते रहे थे.
यह पुस्तक एक साथ इतनी सरल और जटिल है कि इसके विरोधाभास को समझने में दुनिया की कई पीढ़ियां व्यतीत हो गईं और शोध अब भी जारी है.
‘हिन्द स्वराज’ के अंग्रेजी अनुवाद की भूमिका में गांधी ने 20 मार्च 1910 को जोहानेसबर्ग में लिखा- “ ‘हिन्द स्वराज’ का अंग्रेजी अनुवाद जनता के सामने पेश करते हुए मुझे कुछ संकोच हो रहा है। एक यूरोपीय मित्र के साथ इसकी विषय-वस्तु पर मेरी चर्चा हुई थी। उन्होंने इच्छा प्रकट की कि इसका अंग्रेजी अनुवाद किया जाये; इसलिए अपने फुरसत के समय में, मैं जल्दी-जल्दी बोलता गया और वे लिखते गये। यह कोई शब्दश: अनुवाद नहीं है। परन्तु इसमें मूल के भाव पूरे-पूरे आ गये हैं। कुछ अंग्रेज मित्रों ने इसे पढ़ लिया है और जब रायें मांगी जा रही थीं कि पुस्तक को प्रकाशित करना ठीक है या नहीं, तभी समाचार मिला कि मूल पुस्तक भारत में जब्त कर ली गई हैं. मूल में जो अनेक खामियां हैं उनका मुझे खूब ज्ञान है. अंग्रेजी अनुवाद में भी इनका और साथ ही दूसरी बहुत-सी भूलों का आ जाना स्वाभाविक है क्योंकि मैं मूल के भावों को सही रूप से अनुवादित नहीं कर सका हूं.” ‘हिन्द स्वराज’ वह बीज है जिसने गांधी का विचार-वृक्ष धरती की छाती पर उगाया. उनके विचार- दर्शन को बूझने के लिए इस पुस्तक के प्रस्थान बिंदु को समझ लेने से पाठक को भटकाव नहीं होता क्योंकि गांधी-दर्शन की बुनियाद वाकई इसी पुस्तक में है. इसलिए वे सभी तत्व इस पुस्तक में छितराए हुए हैं, जो अलग अलग भी अपने पोषक के विचार दर्शन के अलग अलग वृक्षों की तरह भी विकसित कहे जा सकते हैं. शोधकर्ता यदि गांधी चिंतन को व्यवस्थित और क्रमिक ढंग से विवेचित करना चाहें, तो उन्हें गांधी पाठशाला के इस प्राथमिक ड्राफ्ट से गुजरना जरूरी होगा. यह कृति किसी तरह 'आत्मकथा' से निम्नतर या कम उपादेय रचना नहीं है बल्कि वैचारिक स्तर पर उसकी पूर्ववर्ती होने के नाते ज्यादा मौलिक है, भले ही यहां सब कुछ सूत्र रूप में आबद्ध है. जिस तरह श्रीरामकृष्ण देव के आध्यात्मिक सूत्रों को विवेकानंद ने सांस्कृतिक दुनिया में तब्दील कर दिया, वैसा ही गांधी ने ‘आत्मकथा’ सहित अपने बाकी लेखन में ‘हिन्द स्वराज’ का ही विस्तार और प्रक्षेपण किया. इस कृति को पढ़ने से गांधी वांग्मय की बहुत सी समीक्षाओं को पढ़ने और समझने में भी मदद मिलती है. यह पुस्तक एक साथ इतनी सरल और जटिल है कि इसके विरोधाभास को समझने में दुनिया की कई पीढ़ियां व्यतीत हो गईं और शोध अब भी जारी है. गांधी ने अपनी किताब को निर्दोष कहा था. वह निर्दोष तो है लेकिन निर्दोष को पढ़ना और समझना दोषी व्यक्ति की अपराध विवरणिका को पढ़ने से ज्यादा कठिन होता है. इसीलिए ‘हिन्द स्वराज’ की तुलना रूसो के ‘सोशल कांट्रैक्ट’, सेंट इग्नेसियस लोयोला की ‘स्पिरिचुअल एक्सरसाइजेज़’ और बाइबिल में सेंट मैथ्यू और सेंट ल्यूक के कथनों से की गई है.

यह लेख कनक तिवारी की 'फिर से हिन्द स्वराज' नामक पुस्तक का अंश है.

16 सितंबर 2009

आंसू


आंसू

कहतें है आंसू इंसान के सच का आईना होते है,
पर आज का इंसान तो झूठ को सच बनाने ,
ग़लत को सही बनाने,
हर एक कपट की ख़ुसी को गम के रूप मे जताने के लिए,
आँसू बहा रहा है,
हर कोई हर किसी को ठग लेना चाहता है,
पर नियती के न्याय के आगे अपने को ठगा महसूस करता है,
पर फिर भी इंसान,
जाने कहाँ जा रहा है,
जीने के लिए थोड़े से समान की ज़रूरत होती है,
उसने चार सो साल जीने का समान इकट्ठा कर लिया,
फिर भी ओर समान के लिए,
झूठी कसमें खा रहा है,
ये संसार एक मृग मरीचिका है,
सुखी वही है,
जो सब जानता है,
और अपना कर्तव्य निभा रहा है,


डा रामगोपाल जाट

07 जुलाई 2009


12 मार्च 2009

ऐसा मेरा देश निराला

सुबह सुबह मन्दिर की घंटी,

खेतों में बैलों की हलचल ,

पनघट पर गीतों की माला,

ऐसा मेरा देश निराला,

जीवन की बगिया में यहाँ पर,

सब मिलकर है प्रीत जोड़ते ,

सबका का मन गंगा सा निर्मल,

कोई न मिलेगा मन का काला,

ऐसा मेरा देश निराला,

पावन है यहाँ प्रेम बहन का,

पावन माँ की ममता प्यारी,

पावन है संतों की माला,

ऐसा मेरा देश निराला,

रामगोपाल जाट "कसुम्बी"





10 मार्च 2009

स्वामी रामदेव - एक युग पुरूष


देश भक्त स्वामी रामदेव
सबसे पहले तो होली के शुभ अवसर पर आप सभी को मेरी और से होली की हार्दिक शुभकामनाये,
स्वामी रामदेव जो आज हमारे देश में योग का पर्याय बन गए है भारत माता के सच्चे सपूत है
भारत माता के शहीदों की आत्माएं जब भी इस देश का चिंतन करती होगी तो स्वामी रामदेव को देख व् सुनकर वो भी गर्व महसूस करती होगी की मेरी भारत माता ने ऐसा सपूत भी जाया है जो भारत को जगाने का माद्दा रखता है
आज स्वामी जी ने जयपुर में जो प्रवचन दिया आज देश की जो हालत है उसको शीशे मे उतार दिया सो करोड़ का देश कुछ स्वार्थी लोगो के कारण पुरे जहान में बदनाम है , राजनीति धंधा बन गई है अपने स्वार्थ के लिए लोग भोली जनता को छल कर कुर्सी पा लेते है और पाँच साल तक उनकी सुध लेना तो दूर दर्शन भी नही देते जब मिलने जाते है तो जबाब आता है साहब पूजा कर रहे है ,
स्विश बैंकों के खाते इनकी काली कमाई से भरे पड़े है , जो लोग हमे कुत्ता कहकर ओस्कर देते ही उसपर खुशियाँ मनाई जाती है , संतो का देश , विश्व ललाट पर आभा के सामान चमकने वाला देश आज इन स्वार्थी तत्वों के कारन कितना लाचार व लचर हो गया है क्या इस दिन को देखने के लिए ही सुभाष , भगत सिंह , चंद्रशेखर आजाद , रामप्रसाद बिस्मिल , ने कुर्बानियां दी थी ,
हमारे पास दुनिया का सबकुछ सबसे ज्यादा ही , खनिज , कच्चा मॉल , सबकुछ सबसे ज्यादा है , हमारा ज्ञान सबसे प्राचीन व सबसे उत्तम है ,
स्वामी विवेकानंद ने कहा था "उठो जागो और लक्ष्य की और चल दो "
आज फ़िर से हमे स्वामी रामदेव जैसे कर्मयोगी संतो की दिखाई राहों पर चलना है , क्यों की हमे अपनी वास्तविक आजादी प्राप्त करनी है , हमे फ़िर से विश्व का गुरु बनना है ,
स्वामी जी को सादर साधुवाद ,
रामगोपाल जाट

09 मार्च 2009

मां


माँ
मेरे रोने से ,
उसके नयनों का झरना बहता था ,
मेरे ठुमकने से ,
उसका जी प्रसन्न ,
आत्मविभोर रहता था ,
जीवन में मेरी उदासी से,
उसका मन चिर- चिंतित रहता था,
क्यों की वह मां थी ,
मेरे जीवन के निर्माण और परिमाण ,
सबकी धात्री थी वह,
मेरे सुख और दुःख मे साथ देने वाली,
सहयात्री थी वह,
भगवान् को भूल गुनाह नही करूंगा,
पर उसे भूल,
मैं जीवन का गुनहगार बन जाऊंगा,
मैं उसका 'सूरज-चंदा' ,
उसके 'दिल का टुकडा',
उसे भूल उसका लाल नही,
मक्कार बन जाऊंगा,
प्रेम, त्याग, वात्सल्य, ममता सबकी,
पराकाष्ठा थी मां ,
केवल मेरी ही नही,
भगवान् की भी आस्था थी मां ,
हर असुरक्षा के अंदेशे पर ढाल बन गई थी,
मेरी हर विपदा संघर्ष की पतवार बन गई थी ,
उसके चरणों की रज पीकर,
मैंने गंगा जल पीना छोड़ दिया,
उसके आंसू,
जो मुझ पर अमृत बन गिरे,
मैंने अमर होने के लिए,
और कुछ पीना छोड़ दिया,
----- मां को समर्पित
रामगोपाल जाट

08 मार्च 2009

साचे बैन

जरा सोचिये
अगर हम सुखी रहना चाहते हैं तो हमें अपना फोकस, अपना ध्यान "मेरा मेरा" नहीं करना चाहिये। कयोंकि ऐसा करने से शान्ति चली जाती है। लेकिन आज के युग में हम अपना मतलब नहीं देखेंगे तो भी हो सकता है हमारी आरथिक बैलगाड़ी लड़खड़ा जाएगी। पैसा सुख न भी ला पाए तो पैसे की कमी दुख ला ही सकती है। ये समाज ऐसा बन गया है़। चारों तरफ कलेष फैल गया है। उसके पीछे लालच। उसके पीछे असुरक्षा। उसके पीछे सुख दुख के कारिकारण को न समझ पाना। उसके पीछे बुद्धि का कुन्द होना। उसके पीछे मन को अशुभ मामलों में रस मिलना। उसके पीछे फूटी किस्मत। उसके पीछे विपरीत परिस्थिती। उसके पीछे अशूभ कर्म। उसके पीछे कुबुद्धि। उसके पीछे मन को अशुभ मामलों में रस मिलना। वगैरह।जल ० डिग्री पर जमता है, १०० पर उबलता है। वो उसकी प्रकृति है। वो उससे बँधा है। उसे चाइस यानी चनने का अधिका नहीं है। मानव को है। अगर मानव, मानव समाज दुखी है, कलेषित है, कलह में है, तो जाहिर है कि उसका बरताव ठीक नहीं है। सर्वत्व उसे कह रहा है कि वो गलत रास्ते पर है। तो सही रास्ता क्या है?कौनसा ऐसा बरताव है, ऐसे कर्म हैं जो मानव की सच्ची प्रकृति हैं?जिस बरताव से लंबे समय तक शांति और सुख मिले। कौनसा ऐसा तरीका है जीने का जिससे प्यास बुझे। मन में जोत जगे। मन में तेज आए। मन दूसरे का सुख छीनने में नहीं लगे। शक तनाव है। शक दीवार है। शक सिकुड़ना है। शक छोटा दिल है। शक बेचैनी है। शक दुख है।कहीं पढा कि अमरीका में सबसे दुखी पेशा वकील हैं। वकील का पेशा शक का है। वो किसी पे भरोसा नहीं करता।सबसे बड़ा धन बुद्ध ने मैत्री कहा है। जहाँ मैत्री होगी वहाँ समाज सुखी होगा, लोग एक दूसरे पर भरोसा करेंगे। भरोसा चैन है। भरिसा शान्ति है। भरोसा खुशी है। करूणा से मन शान्त होगा। करूणा से मन में ऊँचे विचार पकड़ने की ताकत आएगी। करूणा हिरदय को जगायेगी। करूणा हिरदय को निरमल बनाएगी। फिर वो आदमी बदल गया। फिर पुराना खुराफाती नहीं रहा। फिर वो समझ गया।मैत्री और करूणा वो दो पंख हैं जो मानव को दुख सागर से उड़ा ले जाते हैं। मूरख को देवता बनाते हैं। कठोर दिल में फूल खिलाते हैं। योगी को सिद्ध बनाते हैं। मन में शुभ विचार का गढ बनाते हैं। दोस्तों मैत्री और करूणा मानव की सच्ची प्रकृति, सच्चा व्यवहार हैं। क्योंकि जिसके पास ये दो हैं, वो सुखी है, प्रसन्न है, बुद्धिमान है, जगा है। वो सबका भला चाहता है।साची प्रीत हम तुमसों जोरीतुमसों जोर अवर संग तोरी। - श्री गुरु ग्रंथ साहिब

सुधार होगा - कोशिश तो कीजिये

हमारा भारत - जरा झांकिए
यह एक विडंबना ही है कि पिछले 15 वर्षों में जहां हमारी अर्थव्यवस्था ने नयी नयी ऊंचाईयों को छुआ है वहीं इस अवधि में कृषि क्षेत्र लु्ड़कता चला गया। यह क्षेत्र इतनी बुरी तरह पिछड़ा कि इस वर्ष हमें रिकार्ड 60 लाख टन गैहूं आयात करना पड़ेगा। हमें बहुत जल्द जाग जाना होगा। कृषी क्षेत्र में सुधारों की तत्काल जरुरत है जिसमें भूमी सुधार, सिंचाई, किसानों को नयी तकनीक की जानकारी तथा ऋण शामिल है। इस पर तुरंत ध्यान न दिया गया तो इसके गंभीर परिणाम होंगे। साठ प्रतिशत आबादी जो कि कृषि पर आधारित है का हिस्सा अर्थ्व्यवस्था में लगातार घटता चला जा रहा है जिससे देश में अमीरी और गरीबी में दूरी बढ़्ती चली जा रही है क्योंकि सेवा क्षेत्र में हो रहे तेज विकास के कारण मध्य वर्ग बहुत तेजी से विकास कर रहा है। यह सच है कि आर्थिक सुधारों ने लाखों पढ़े लिखे भारतीयों को लाभ पहुंचाया है मगर अभी भी बहुत बड़े वर्ग तक इसका असर नहीं पहुंचा है। साफ पानी, स्वास्थ्य सुविधाएं तथा शिक्षा इनके लिये सपना ही है। कुछ उदाहरण देखिये:
प्राईमरी स्कूलों के केवल 25% टीचर ही ग्रेजुएट है।
केवल 28 % स्कूलों में बिजली है तथा आधे से ज्यादा स्कूलों में दो से ज्यादा टीचर या दो से ज्यादा क्लासरूम नहीं हैं।
56% ग्रामीण घरों में बिजली नहीं है।
1,20,000 गांवों को अभी बिजली का बल्ब देखना बाकी है।
उड़ीसा के 80% गांवों में बिजली नहीं है।देश में टीबी, एच आई वी मरीज तो बढ़ ही रहे हैं, कुपोषन के शिकार बच्चे तथा महिलायें भी बढ़ रही हैं।
केवल 38% हेल्थ सेंटरों के पास ही पूरा स्टाफ है तथा केवल 31% के पास इलाज के लिये जरूरी सामान।पीने का पानी एक चौथाई ग्रामीणों की पहुंच से बाहर है।
मुम्बई की 54 % आबादी स्लम में रह्ती है।
एशिया के सबसे बड़े स्लम धारावी में जहां सूरज की रोशनी नहीं जाती क्योंकि घर एक दूसरे के इतने नजदीक बने है, जिसकी गलियों से आप बिना बांहों को सिकोड़े निकल नहीं सकते, जहां एक टायलेट को औसतन 1440 लोग इस्तेमाल करते हैं ऐसी जगह पर 10 X 10 की झोपड़ी का किराया 1500 रु महीना है।
फिर भी लोग गांवों को छोड़ छोड़ कर शहरों को पलायन कर रहे हैं और इन स्लम्स पर और दबाव बना रहे हैं।
अब बताइये गरीब क्या करे? उन गांवों मे रहे जहां न रोजगार है, न बिजली है, न पानी है, न शिक्षा और न स्वास्थ्य या शाहरों में आकर इन स्लम्स में रहे?
चीन ने जब आर्थिक सुधार शुरु किये उससे पहले अपने हर नागरीक को रोटी कपड़ा और मकान दिया। हम जो शहरों में कमा रहे हैं उससे शहर भी नहीं सुधार पा रहे, गांवों की तो बात ही क्या।

झांक कर देखिये- हर कोई डूबा है भ्रष्टाचार मे

सरकारी खजाने से निकला एक रुपए का सिक्का घिसता-घिसता जब किसी गरीब की हथेली तक पहुंचता है तो वह पंद्रह पैसे रह जाता है- लेकिन इसे भ्रष्टाचार के सरकारी आंकड़े की तरह देखने की जगह गरीब आदमी के साथ की जा रही ऐसी नाइंसाफी की तरह देखना चाहिए जो पहले उसका सम्मान लेती है फिर उसकी जान लेती है। सिर्फ सरकारी सिक्का ही आदमी तक आते-आते नहीं घिसता है, गरीब आदमी भी सरकार तक पहुंचते-पहुंचते घिस जाता है, उसकी औकात पंद्रह पैसे भर की भी नहीं रह जाती। रोजगार गारंटी योजना लागू हुई तो वो भ्रष्टाचार की गारंटी में बदल गई। गरीब आदमी के लिए सस्ता अनाज मुहैया कराने की सरकारी योजना को घपले के घुन पहले से खाते रहे हैं। दरअसल अब ऐसा लगने लगा है कि सरकार जब गरीब आदमी का नाम लेती है तो अफसरों और बाबुओं की बांछें खिल जाती हैं। वो जान जाते हैं कि उनके सामने एक ऐसा शिकार है जिसकी चीख दिल्ली में बैठे लोग नहीं सुनेंगे, सुनेंगे भी तो उसकी परवाह नहीं करेंगे। अगर हम वाकई किसी योजना को लेकर ईमानदार हैं, वाकई चाहते हैं कि इस देश के गरीब आदमी का भला हो तो नई योजना बनाने से पहले पुरानी अफसरशाही बदलनी होगी। जब पंचायती राज कानून लागू हुआ तो लगा कि विकास की योजनाओं में स्थानीय भागीदारी लोगों की किस्मत बदलेगी। लेकिन अब भी ऊपर से भ्रष्टाचार की उंगली पकड़ कर उतरा हुआ मुलायम सिक्का जब किसी मुखिया की हथेली पर गिरता है तो उसे भी ऊपर की तरफ खींच लेता है। हालांकि इस शिकायत के अपवाद हैं और वही भरोसा दिलाते हैं कि ये सूरत बदलेगी। लेकिन जब तक वो बदलती नहीं, मौजूदा सूरत को पहचानना जरूरी है।

रामगोपाल जाट

07 मार्च 2009

भ्रष्टाचार की दुनिया

भ्रष्टाचार की दुनिया
अपने चारों ओर नजर घुमाकर देखिए स्थिति कितनी विकराल हो चुकी है। भ्रष्टाचार अब एक सामान्य-सी लगने वाली बात है। अब यह हमारी व्यवस्था का एक अभिन्न अंग है। इसके विरोध में बात करना भी बेमानी लगती है। कहने का तात्पर्य है कि अब हमने इसे स्वीकार कर लिया है। इसके साथ ही दूसरी विशेष बात है कि अब छोटी-छोटी बातों के लिए लड़ाई सड़कों पर पहुंच रही है जिसमें पुलिस मूकदर्शक होती है। राजनेताओं को राज्य की नीति से दूर-दूर तक कोई मतलब नहीं। राजनीति में गुंडे-बदमाशों-मवालियों की हिस्सेदारी बढ़ती जा रही है। उनके लिए रामराज अर्थहीन है। जो जैसा चाहता है वो वैसा ही करवा सकता है। वोट के खातिर राजधर्म भीड़ के पैरों तले रौंद दिया जाता है। प्रजातंत्र भीड़तंत्र में तबदील हो चुका है। हर एक शासक बनने के चक्कर में है, फिर चाहे रास्तें कोई भी हो। हर कोई शासन से कुछ न कुछ लेने के फिराक में घात लगाए बैठा मिल जाएगा। राष्ट्र को कुछ देने का सवाल ही नहीं। देश के लिए त्याग करना अब सपना बन चुका है। किसी भी व्यवस्था को चलाने के लिए कुछ नियम बनाये जाते हैं और उनका पालन अति आवश्यक होता है। परंतु आज नियमों को तोड़ना एक फैशन बन चुका है। ऐसा करने वाले रातोंरात प्रसिद्धि पा जाते हैं। और दुर्भाग्यवश वो आज हमारे जननायक भी बन बैठे हैं। गलत रास्तों पर चलना बहुत आसान हो चुका है। और पकड़े जाने पर उससे बचना तो और भी आसान है। आम जनता देखकर चुप तो रह जाती है मगर फिर यही बात उसके दिल में आग बनकर उसे जलाती रहती है। कुछ एक इसे देखकर स्वयं भी गलत काम के लिए प्रेरित हो जाते हैं। ऊपर से यह जानते हुए भी कि सब को सब कुछ नहीं मिल सकता। हमने सबके अंदर महत्वकांक्षाएं इतनी भर दी हैं, बाजार ने इच्छाएं इतनी बढ़ा दी हैं, कृत्रिम भूख इतनी पैदा कर दी गई है कि हर आदमी हर कुछ चाहता है। क्या यह संभव है? नहीं। एक तरफ महलों के अंदर जीने वाले रईस, रातोंरात नामी बन रहे सितारे, तिकड़म द्वारा करोड़ों कमाते व्यवसायी, भाषा-धर्म-क्षेत्र की भावनाओं पर राजनीति की रोटी सेंकते राजनेता, दूसरी तरफ एक वक्त की रोटी को तरसता आम गरीब परिवार। असमानता इतनी बढ़ गयी है कि संभालना मुश्किल होता जा रहा है। आज की मुक्त अर्थव्यवस्था, खुला बाजार, अति आधुनिक जीवन, प्रतिस्पर्द्धात्मक युग चाहे जो नाम दे दें और चाहे जो कर लें, सफल होते तो गिने-चुने ही हैं। परंतु आग तो सब के दिल में लगा दी गई है। सभी को सब कुछ चाहिए। क्या यह संभव है? नहीं। हम तो यह भी भूल गए कि प्रकृति की बनाई हुई व्यवस्था में भी सब कुछ सबके पास नहीं है। संतुष्टि की भावना को दबा दिया गया। 'संतोष परम सुखम' का ज्ञान बांटने वाले सत्संग भी अपने आप में व्यापार बन गए। भजन गाने वाले भी करोड़ों में खेलने लगे। धर्म का उद्देश्य समाज में व्यवस्था बनाने की जगह अपनी धाक जमाना व भीड़ बढ़ाना हो गया। हर आदमी दौड़ रहा है। उसे रोक कर समझाने वाला कोई नहीं। उसे सपनों की दुनिया में ले जाया गया, बेवकूफ बनाने के लिए। बेवकूफ बनाने वाला स्वयं को बहुत समझदार समझ रहा है। मगर वो भी स्वयं कहीं न कहीं किसी न किसी का शिकार है। अंततः एक ऐसा कालचक्र, जिसके चक्रव्यूह में फंसकर एक ऐसा बवंडर बन चुका है जो पूरी सभ्यता व संस्कृति को नष्ट कर के ही दम लेगा। उपरोक्त बातों का ही नतीजा है जो आम जनता विद्रोह पर उतर आयी है और वो सब कुछ करने लगी है जो लेख के प्रारंभ में दिखाया गया। सवाल यहां सही और गलत का नहीं है। अभी तो यह शुरुआत है। वो दिन दूर नहीं जब लोग राजनेताओं का सड़कों पर चलना मुश्किल कर देंगे। घर के अंदर भी पुलिस उन्हें बचा नहीं पायेगी। चमचमाते फिल्मी सितारों को और रईस के घरों को लूट लिया जायेगा। आग इतनी फैल जायेगी कि सारी कानून व्यवस्थाएं ठप हो जायेंगी। यह कोई अच्छी बात नहीं होगी, न ही इस अव्यवस्था का स्तुतिगान मैं यहां कर रहा हूं। मगर फिर जो दिख रहा है उससे आंखें मूंदना भी ठीक नहीं। वैसे भी हमने जो किया है वही तो हमें लौटकर मिलेगा। लेकिन इसी घटनाक्रम को एक नयी दृष्टि से विश्लेषित करें तो पायेंगे कि असल में प्रकृति के इस नियम का पूरी तरह पालन हो रहा है कि नये के आने के पहले पुराने का नष्ट होना आवश्यक है। पुराने के गये बिना नये का आगमन संभव नहीं। पुरानी पत्तियों के जाने के बाद ही पेड़ों पर नये अंकुर फूटते हैं। विनाश के बाद ही नया सृजन होता है। ठीक इसी तरह उपरोक्त घटनाएं हमारे वर्तमान व्यवस्था के समाप्त होने का एक संकेत है। यह इस बात का प्रतीक है कि वर्तमान को अब जाना होगा। वो जर्जर हो चुका है। सड़-गल रहा है। यह प्रदर्शन करती, आग लगाती, अनियंत्रित भीड़ अपने अंदर से एक नये व्यवस्था को जन्म देगी जो आज की इस अस्तव्यस्तता से छुटकारा दिलायेगी। और फिर इतना यकीन है कि अंत में जो होगा अच्छा ही होगा। इसकी परिणति नये समाज की नयी व्यवस्था के रूप में होगी।
लेखन रामगोपाल जाट 'कसुम्बी 'द्वारा

06 मार्च 2009

प्राणायाम और उसका प्रभाव


प्राणायाम और उसका प्रभाव
योग न सिर्फ मनुष्य की तंदुरुस्ती के लिए सही होता है, बल्कि यह मानसिक विकास में भी काफी सहायक होता है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारत सहित दुनियाभर में योग का काफी प्रचार-प्रसार हुआ है। यही कारण है कि जन-जन में योग के प्रति रूचि बढी है। जिस विद्या को हम भूलते जा रहे हैं, वह फिर लोगों में धीरे-धीरे अपनी पैठ बनाता जा रहा है।योग साधना के आठ अंग हैं, जिनमें प्राणायाम एक ऐसी योग साधना है, जिसका मानव जीवन पर काफी गहरा प्रभाव पडता है। प्राणायाम दोनों प्रकार की साधनाओं के बीच का साधन है, अर्थात् यह शारीरिक भी है और मानसिक भी। प्राणायाम से शरीर और मन दोनों स्वस्थ एवं पवित्र हो जाते हैं तथा मन का निग्रह होता है।पातंजलि योग सूत्र 249 के अनुसार आसन के सिध्द हो जाने पर श्वास और प्रश्वास की गति के अवरोध हो जाने का नाम 'प्राणायाम' है।'प्राणायाम' शब्द दो शब्दों प्राण+आयाम से मिलकर बना है। प्राण का साधारण अर्थ जीवन शक्ति और आयाम का अर्थ विस्तार अर्थात् जीवन शक्ति का विस्तार। प्राण शब्द के साथ प्राय: 'वायु' को जोड़ा जाता है, तब इसका अर्थ नाक द्वारा श्वास लेकर फेफड़ों में फैलाना तथा उसके ऑक्सीजन अंश को रक्त के माध्यम से शरीर के अंग-प्रत्यंगों में पहुंचाना होता है।यह प्रक्रिया इतनी महत्वपूर्ण है कि यदि यह कुछ क्षणों के लिए भी रुक जाए तो जीवन का अंत हो जाएगा। सृष्टि में जो चेतनता दिखाई दे रही है, उसका मूल कारण 'प्राण' ही है। इस प्रकार प्राणायाम का प्रयोजन पूरा होता है।प्राणायाम की मुख्य पध्दति में मुख्य रूप से तीन चरण हैं- श्वास को भरना (पूरक), श्वास को रोकना (कुंभक), श्वास को निकालना (रेचक)। कुंभक दो प्रकार का है, श्वास को अंदर भरकर रोकना जिसको अंत: कुंभक कहा जाता है। दूसरा श्वास को बाहर निकालकर रोकना, जिसको बाह्यकुंभक कहा जाता है।प्राण और अपान वायु के मिलने को 'प्राणायाम' कहते हैं। प्राणायाम कहने से रेचक पूरक और कुंभक की क्रिया समझी जाती है। हमारे शरीर में पांच महाप्राण तथा लघु प्राण हैं, जिनका वर्णन संक्षेप में निम्न प्रकार है-1। प्राण: इसका निवास हृदय में है और इसके साथ इसका लघु प्राण 'नाग' भी वहीं रहता है। प्राण के द्वारा श्वासों, प्रश्वास, आहार आदि का खींचना, बल, संचार तथा शब्दोचार आदि क्रियाएं होती हैं। 'नाग' जो इसका उपप्राण है, उसके द्वारा हिचकी, डकार तथा गुदावायु की क्रिया होती है।2। अपान: यह महाप्राण गुदा और जननेन्द्रिय के बीच मूलाधार के निकट स्थित है। इसके द्वारा हमारे शरीर के सभी मलों का विसर्जन होता है तथा इसके सहयोगी लघुप्राण 'कुर्मं' के द्वारा पलकों का झपकना और नेत्रों संबंधी अन्य क्रियाएं होती हैं।3। समान: इस महाप्राण का निवास स्थान उदर में नाभि के नीचे है। शरीर में पाचक रसों का उत्पादन तथा वितरण इसी महाप्राण के द्वारा होता है। इसका उपप्राण 'कृकल' भूख-प्यास आदि क्रियाओं का सम्पादन करता है।4। उदान प्राण का निवास कण्ठ है। यह शरीर को उठाए रखने, गिरने से बचाने का कार्य करता है अर्थात शरीर का संतुलन पर नियंत्रण बनाए रखना इसी का कार्य है। उदान प्राण के साथ 'देवदत्त' लघुप्राण जम्भाई और अंगड़ाई आदि क्रियाओं को कराता है।5। व्यान: इस महाप्राण का स्थान मस्तिष्क का मध्य भाग है। यह पूरे शरीर में व्याप्त है। अत: अन्य चारों प्राणों और पूरे शरीर पर नियंत्रण रखना इसका कार्य है। अन्तर्मन की स्वसंचालित गतिविधियां इसी के द्वारा पूरी होती हैं। इसका लघुप्राण 'धनंजय' मृत्यु के पश्चात शरीर को गलाने, सड़ाने का कार्य करता है।प्राणायाम के द्वारा शरीर और मन पर पड़ने वाला प्रभाव महत्व तथा प्राणायाम के अभ्यास से होने वाले लाभों को भारतीय ऋषियों ने हजारों साल पहले अनुभव कर लिया था। प्राणायाम के द्वारा हमें शारीरिक तथा मानसिक समता प्राप्त हो जाती है और शरीर के सभी मल तथा मन के विकार भस्म हो जाते हैं। प्राणायाम के अभ्यास से मनुष्य अपने रोगों को नष्ट करने की क्षमता प्राप्त कर लेता है। मनुष्य की बहत्तर हजार नस-नाड़ियों में शुध्द रक्त का संचार होने लगता है, जो उत्तम स्वास्थ्य के लिए अत्यावश्यक है।यूं तो प्राणायाम अनेक प्रकार के हैं, किन्तु यहां हम उन्हीं प्राणायाम की चर्चा करेंगे, जिन्हें ग्रहस्थी, बाल, युवा, वृध्द, पुरुष एवं महिलाएं सुविधापूर्वक करके लाभ प्राप्त कर सकें।प्राणायाम करने वाले को कुछ सावधानियों के साथ नियमों का पालन करना आवश्यक है-सामान्य नियम1। प्राणायाम करने का सबसे उत्तम समय प्रात:काल शौचादि से निवृत्त होने के पश्चात है। सायंकाल में की कुछ हल्के प्राणायाम किए जा सकते हैं।2. स्थान स्वच्छ, शांत और हवादार होना चाहिए। 3. पद्मासन, सिध्दासन अथवा सुखासन पर बैठकर प्राणायाम करना चाहिए।4. प्राणायाम करने वाले साधक का आहार-विहार संतुलित, सात्विक एवं पवित्र होना चाहिए।5.प्राणायाम का अभ्यास श्रध्दा, प्रेम, धैर्य और सजगता के साथ नियमित करना चाहिए।6. किसी रोग की स्थिति में तथा गर्भवती महिलाओं को वेगयुक्त प्राणायाम नहीं करने चाहिए।7. दमा, उच्च रक्तचाप तथा हृदय रोगियों को कुंभक नहीं करना चाहिए।8. प्रत्येक प्राणायाम अपनी क्षमतानुसार करें, किसी स्तर पर किसी प्रकार के कष्ट का अनुभव न हो अथवा श्वास घुटने न पाए।9. प्राणायाम करने वाले साधक के वस्त्र मौसम के अनुकूल कम से कम तथा ढीले होने चाहिए।10 हर एक प्राणायाम करने के पश्चात एक दो गहरे लंबे सांस भरकर धीरे-धीरे निष्कासित करके श्वास को विश्राम देना चाहिए।उखड़े श्वास में कभी भी प्राणायाम नहीं करना चाहिए।

16 फ़रवरी 2009

भ्रष्टाचार की फैलती जड़ें

भ्रष्टाचार की फैलती जड़ें
भारत में यह प्रचलन हो गया है कि किसी भी काम के लिए हमें सुविधा शुल्क देना पड़ता है. यह स्पीड मनी होता है और यदि आप सुविधा शुल्क नहीं देंगे तो आप कोई भी काम नहीं करा सकते. देश की लचर कानून ब्यवस्था का नौकरशाह व राजनीतिज्ञ भरपूर लाभ उठाते हैं लेकिन आम आदमी को कोई भी काम कराने के लिए सुविधा शुल्क का सहारा लेना पड़ता है. मृत्यु या जन्म प्रमाणपत्र लेना हो, या फिर भीड़ भरी ट्रेन में सीट, हमें सुविधा शुल्क देना पड़ता है.
एक अनुमान के अनुसार अपना काम कराने के लिए लोग लगभग १ ट्रीलियन डालर का भुगतान करते हैं जबकि यहां एक अरब लोग रोटी के लिए संघर्ष कर रहे हैं. यहां तो जीने के लिए भी लोगों को सुविधा शुल्क देने की आवश्यकता पड़ रही है. जब भ्रष्टाचार ऊंचे स्थानों पर होता है और उसमें रक्षा व उड़ानों से संबंधित सौदे होते हैं तो उसके कुछ और ही मायने होते हैं.
राजनीतिज्ञों के लिए सुविधा शुल्क अपने मतदाताओं की देखभाल करने व मुख्य रूप से चुनाव लड़ने के काम आता है. विचारधारा के क्षरण के साथ ही चुनाव काफी खर्चीले हो गए हैं. एक सामान्य सर्वेक्षण के अनुसार प्रत्येक सांसद चुनावों में चुनाव आयोग द्वारा तय की गई अधिकतम धनराशि २० लाख से काफी अधिक खर्च करते हैं. एक अनुमान के अनुसार यह आंकड़ा पांच करोड़ से ज्यादा का है. यह आश्चर्य की बात है कि सांसदों के पास इतने पैसे कहां से आते हैं?
पूरे देश को आश्चर्यचकित कर देने वाले जैन हवाला घोटाले की जांच के दौरान एक बहुत अमीर आरोपी से पूछा गया कि वह इतने थोड़े पैसों के लिए ऐसा क्यों किया तो उसका जवाब था कि "राजनीति में किसी भी काम के लिए प्रत्येक समय पैसों की जरुरत होती है और उनके पास पैसे कमाने का कोई पारदर्शी तरीका नहीं होता है". अधिकतर राजनीतिज्ञ व कुछ बड़े वकील राजनीति के अलावा कुछ भी नहीं करते. चुनावों के समय अपने धन का लेखा जोखा प्रस्तुत करने के बाद भी बहुत से राजनीतिज्ञों की आय का स्रोत नहीं पता होता है. आयकर विभाग को इस बारे में गहन छानबीन करनी चाहिए.
केवल राजनीतिज्ञों पर ही दोषारोपण क्यों करें. कुछ पब्लिक सर्वेंट जो भ्रष्टाचार में लिप्त हैं, उनमें से अधिकतर नए भारत के प्रतिमान हैं जो वायुयान और बीएमडब्ल्यू कारों पर सवारी करते हैं लेकिन उनकी छवि अच्छी नहीं होती. अपने लाभ के सामने उनके लिए नियम कानून कोई मायने नहीं रखता और वे कर भी अदा नहीं करते. यहां तक की उनमें से अधिकतर आर्थिक सुधारों का लाभ भी उठाते हैं.
ऐसे माहौल में जहां सभी कुछ या तो गैरकानूनी है या अवैध तरीके से प्राप्त किया जा रहा है, ऐसे में नियम कानून की बात करना बेमानी हो गया है. नियम कानून का पालन करने वाले लोग भी जब यह देखते हैं कि भ्रष्टाचारी फल फूल रहे हैं तो वे भी इस दबाव के आगे झुक जाते हैं. इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि भारत में अधिकतर निर्माण अवैधानिक हैं और जब भी कुछ अवैध निर्माणों पर बुल्डोजर चलाया जाता है तो इसे अत्याचार के तौर पर लिया जाता है. बुल्डोजर का सामना कर रहे लोगों के अनुसार "हमने एमसीडी अधिकारियों को इसके लिए पैसे दिए हैं, हमने बिजली और पानी का पैसा दिया है, हमें कभी यह नहीं लगा कि हम गलत कर रहे हैं".
वे आश्चर्यचकित होते हैं कि क्यों सरकार और न्यायालय सैनिक फार्म में स्थित राजनीतिज्ञों के निवासों को ढ़हाने नहीं देते जबकि वे भी उसी तरह अवैध हैं. यदि सरकार भूमि कानून को सरल बना दे तो दिल्ली में चल रहा तोड़फोड़ भ्रष्टाचार के खिलाफ उठाया गया एक अच्छा कदम है.
यदि केंद्रीय सूचना आयोग के अधिकारी अपने भूत को त्याग दें और लोगों को सब कुछ जानने के अधिकार पर अमल करें तो सूचना का अधिकार इस दिशा में एक प्रभावी कदम साबित होगा. सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए योग्य लोग ही ऊंचे पदों पर बैठें. पूंजीपतियों और नौकरशाहों को सजा का भागीदार बनाने से यह संदेश जाएगा कि भ्रष्टाचार कम खतरनाक और अधिक निवेश का उद्यम नहीं है. संयुक्त राष्ट्र में भ्रष्टाचार रोकने के समझौते पर भारत के हस्ताक्षर करने के निर्णय के कारण भारत की छवि और अधिक स्पष्ट हुई है और आने वाले दिनों में इसका प्रभाव दिखाई देगा.
केरल व कर्नाटक के महिला सरपंचों के एक संगठन द्वारा कराए गए सर्वेक्षण में कुछ रोचक तथ्य सामने आए हैं. कुछ लोगों का यह विचार था कि महिला सरपंचों का नजरिया भ्रष्टाचार के विरुद्ध है तथा वे सरकार के कार्यक्रमों को पूरी तरह से लागू करती हैं. सर्वेक्षण में यह बात गलत साबित हुई तथा यह तथ्य सामने आया है कि महिलाएं भी धनलोलुप हैं. यदि हम इन सर्वेक्षणों को किनारे रख दें तो भी हम पाएंगे कि महिला और पुरुष सरपंचों में कोई खास अंतर नहीं है.
यह अध्ययन इसको नकारता है कि महिलाओं को संसद या विधानसभाओं में जाने और सत्ता में अधिक भागीदारी मिलने पर भ्रष्टाचार में कमी आएगी, जिसको आधार बनाकर महिला संगठन उनके लिए ३३ फीसदी आरक्षण की मांग कर रही हैं.
वास्तव में इसे साबित करने के लिए दक्षिण भारत के गांवों में इसके सर्वेक्षण की कोई आवश्यकता नहीं थी। अगर हम वर्तमान परिदृश्य पर नजर डालें तो कुछ महिला नेताओं जैसे तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे. जयललिता और बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती, दोनों के मामले में यह कहा जा सकता है कि महिलाएं भी उतना ही भ्रष्टाचार में लिप्त हैं जितना कि पुरुष.
प्रस्तुति -- रामगोपाल जाट " कसुम्बी"

भ्रष्टाचार का सच -- लोकतंत्र के लिए खतरा

भ्रष्टाचार का सच -- लोकतंत्र के लिए खतरा
भ्रष्टाचार हमारे जीवन का हिस्सा बन गया है। ज्यादातर लोग इसके आदी हो गए हैं। यह खतरे का संकेत है। इससे भ्रष्टाचार के दंड से बचने की प्रवृत्ति बढ़ेगी और भ्रष्टाचार को स्वीकृति देने की संस्कृति और मजबूत होगी। भ्रष्टाचार का खामियाजा सबसे अधिक गरीब और कमजोर वर्ग के लोगों को भुगतना पड़ता है।गरीबी उन्मूलन की योजनाओं का इससे बंटाढार हो जाता है, कानून एवं न्याय का राज खतरे में पड़ जाता है। नागरिक जिम्मेदारियों और मर्यादित आचरण के आदर्शों की जगह संकीर्ण स्वार्थों पर आधारित दृष्टिकोण हावी हो जाते हैं। आदर्शवादी युवा पीढ़ी के लिए यह जहर का काम करता है।इस संदर्भ में बीपीएल परिवारों और ग्यारह बेसिक सर्विसेज के अध्ययन पर
भ्रष्टाचार का सबसे दुखद पहलू तो यह है कि एक तरफ वर्षों से इसका अध्ययन हो रहा है, लेकिन दूसरी ओर यह मर्ज बढ़ता ही जा रहा है। बैड गवर्नेंस की हम जितनी आलोचना करते हैं, शासन में बैठे अधिकारी भ्रष्टाचार को उतने ही उत्साह से गले लगाते हैं
आधारित सीएमएस ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल इंडिया की रिपोर्ट विचलित करने वाली है। यह रिपोर्ट बताती है कि कल्याण योजनाओं से लाभान्वित होने वाले एक तिहाई बीपीएल परिवारों को कानूनसम्मत सेवाएँ हासिल करने के लिए रिश्वत देना पड़ती है। लगभग सभी राज्यों में अन्य विभागों की अपेक्षा पुलिस तंत्र सर्वाधिक भ्रष्ट है।यह अत्यंत निंदनीय स्थिति है और इसका प्रभाव सामाजिक आधार को ही खोखला कर रहा है। भ्रष्टाचार का सबसे दुखद पहलू तो यह है कि एक तरफ वर्षों से इसका अध्ययन हो रहा है, लेकिन दूसरी ओर यह मर्ज बढ़ता ही जा रहा है। बैड गवर्नेंस की हम जितनी आलोचना करते हैं, शासन में बैठे अधिकारी भ्रष्टाचार को उतने ही उत्साह से गले लगाते हैं। कानून का शासन कायम करना मुश्किल हो गया है इसलिए स्टिंग ऑपरेशन भी बेअसर साबित हो रहे हैं।'कैश फॉर वोट' प्रकरण की अभी भी जाँच चल रही है मगर झामुमो रिश्वतकांड में शामिल सांसद विशेषाधिकारों की आड़ में भ्रष्टाचार के आरोपों से सुप्रीम कोर्ट द्वारा मुक्त किए जा चुके हैं। सांसदों को विशेषाधिकार प्रदान करने वाले कानूनों में संशोधन क्यों नहीं किया जाता क्योंकि किसी भी पार्टी का सांसद धन प्राप्ति के स्रोतों की बारीकी से जाँच का सामना करना नहीं चाहता है और ऐसे ज्यादातर स्रोत संदेहास्पद होते हैं जिन्हें सांसदों का संरक्षण प्राप्त होता है।मुख्य निगरानी आयुक्त सरकारी अधिकारियों से जुड़े भ्रष्टाचार के मामलों को लगातार प्रकाश में लाते रहे हैं। कुछ छोटे अधिकारियों के खिलाफ कभी-कभार कार्रवाई भी हो जाती है मगर अधिकांश मामलों में बड़े अधिकारियों पर हाथ नहीं डाला जाता। संयुक्त सचिव और बड़े पदों पर आसीन अधिकारियों या मंत्री के खिलाफ कार्रवाई के लिए उनके ऊपर बैठे मंत्रियों या अधिकारियों की पुर्वानुमति आवश्यक है।अपने अधीनस्थों के खिलाफ उच्चाधिकारियों की पूर्वानुमति मिल जाए, ऐसा दुर्लभ ही होता है। हाल की एक मीडिया रिपोर्ट तो बताती है कि भ्रष्टाचार में लिप्त रहे किसी अधिकारी के खिलाफ रिटायरमेंट के दस वर्षों बाद तक कार्रवाई करने के लिए उच्चाधिकारी की पूर्वानुमति आवश्यक बनाने के बारे में सरकार विचार कर रही है। तब तक तो सब कुछ खत्म हो जाएगा।भ्रष्टाचार पर संयुक्त राष्ट्र ने एक सम्मेलन आयोजित किया था। सम्मेलन के अंतिम दिन भारत इसमें शामिल हुआ। सम्मेलन ने यह जरूरत बताई कि भ्रष्टाचार निरोधक कानूनों को राष्ट्रीय कानून का दर्जा मिलना चाहिए। इस सिफारिश पर भारत ने भी मोहर लगाई। सम्मेलन के 18 महीने बाद भी भारत सरकार ने इस दिशा में कोई प्रक्रिया शुरू नहीं की है।नतीजतन भारत भ्रष्टाचार के संदिग्ध आरोपियों के प्रत्यर्पण की माँग नहीं कर सकता, विदेशों में गुप्त रूप से जमा निजी या सार्वजनिक धन को जब्त करने या काले धन को सफेद करने के स्रोतों की जाँच करने की माँग नहीं कर सकता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ कठोर एवं प्रभावी कार्रवाई करने में किसी की दिलचस्पी दिखाई नहीं देती।उच्चाधिकारी अधिकार प्राप्त न होने और सहयोग न मिलने का रोना रोते हैं क्योंकि भ्रष्टाचार के जरिए प्राप्त धन को मिल-बाँटकर खाने की व्यवस्था में इससे व्यवधान उपस्थित होगा।भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए अनगिनत आयोग और समितियाँ गठित की जा चुकी हैं, मगर केंद्र और अधिकांश राज्य सरकारों ने पुलिस व्यवस्था में सुधार के लिए कोई पहल नहीं की। एक निश्चित समय सीमा के भीतर पुलिस व्यवस्था में सुधार के लिए सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट निर्देश जारी किए मगर इससे भी बात नहीं बनी।
केंद्र कहता तो है कि वह सुधार के पक्ष में है मगर इस मामले में नेतृत्वविहीन दिखता गृह मंत्रालय बिलकुल निष्क्रिय नजर आता है। गृह मंत्रालय का तर्क है कि पुलिस और खुफिया एजेंसियाँ राज्य सरकारों के अधीन हैं और इन मामलों में गृह मंत्रालय हस्तक्षेप नहीं कर सकता है
पुलिस और खुफिया एजेंसियों का राजनीतिकरण हो चुका है, राजनीति के अपराधीकरण की प्रक्रिया तेज है। अपराधों के राजनीतिकरण की प्रक्रिया में भी तेजी आई है। फौजदारी कानून व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो चुकी है। परिणामस्वरूप न्यायालय की बजाय अन्य स्रोतों से न्याय प्राप्त करने की प्रवृत्ति बढ़ गई है।सीबीआई और अन्य खुफिया एजेंसियाँ भी राजनीतिक दखलंदाजी की शिकार हैं। इसी कारण हम आतंकवाद का सामना सफलतापूर्वक नहीं कर पा रहे हैं। अत्यंत कठोर कानूनों के प्रति समाज में आक्रोश पैदा हो जाता है क्योंकि इनका दुरुपयोग गरीबों और कमजोरों के खिलाफ किया जाता है।कोई भी व्यक्ति ऐसा राज्य नहीं चाहता जहाँ सुरक्षा एजेंसियाँ हावी हों। साथ ही वह मानवाधिकारों में कोई कमी भी नहीं चाहता जबकि यह सच है कि अगर विद्यमान कानूनों को भी पूरी तरह लागू किया जाए तो वे प्रभावी होंगे। मगर ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि इन्हें लागू करने वाले तंत्र की धार को राजनीतिक रूप से कुंद कर दिया गया है।हाल ही में अहमदाबाद, बेंगलुरू, जयपुर और अन्य स्थानों पर बम विस्फोटों की जाँच में मिले सबूतों से पता चला है कि यह 2002 में हुए गुजरात दंगों के प्रतिशोध में किए गए हैं। यदि यह सच है कि यह कमजोर राज्यों में बढ़ते व्यक्तिगत प्रतिशोध की भावना का संकेत हैं तो इस मामले में गुजरात दंगों के समय नरेंद्र मोदी के उस संदेश को याद करें जिसमें उन्होंने कहा था- यदि आप शांति चाहते हैं तो न्याय की बात मत कीजिए।दूसरी तरफ दंगा पीड़ितों में से कुछ लोग कहने लगे हैं कि जब तक न्याय नहीं होगा तब तक शांति नहीं होगी। गुजरात पुलिस पर भारी राजनीतिक दबाव था लेकिन मूल न्यायिक प्रक्रिया को भी ताक पर रख दिया गया। इस तरह के आचरण को कुछ बड़े लोगों ने उचित भी ठहरा दिया।जाँच आयोगों का औचित्य भी संदेह के घेरे में है। 1992 के बाबरी मस्जिद कांड की जाँच कर रहे लिब्रहान आयोग की समय-सीमा 47वीं बार बढ़ाई गई। गुजरात में नानावती आयोग को भी पाँचवीं बार मोहलत मिली। हमें लोकतंत्र को बचाने के लिए तुरंत कुछ करना इस विषय पर गंभीर चिंतन और एक सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है नही तो एक दिन हमारा लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा


योग शास्त्र की रचना महर्षि पतंजलि ने की है, उनके अनुसार योग को अपनाकर आध्यात्मिक उन्नति, ज्ञान, सुख तथा शांति को पाया जा सकता है। चित्त की वृत्तियों का शमन ही योग है। इस प्रकार हम देखें तो पाएंगे कि योग आनंदमय जीवन जीने की एक कला है। पतंजलि ने योग के आठ अंग बताए हैं-
1। यम
2। नियम3। आसन'4। प्राणायाम5। धारणा6। प्रत्याहार7। ध्यान
समाधि
योग के आठ अंगों में से यम पहला है, यदि इन आठों में से किसी भी एक को छोड़ दिया जाए तो योगासन अधूरा माना जाता है-यम पांच हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रहअहिंसा: अहिंसा का अर्थ है, कभी भी किसी प्राणी का अपकार न करना, कष्ट न देना। अहिंसा व हिंसा का मुख्य स्त्रोत बुद्धि है। बुद्धि ही भले-बुरे का निर्णय करके वचन तथा कर्म में मन को तैयार करती है। अत: मन, वचन तथा कर्म में हिंसा को पूरी तरह छोड़ देना ही पूर्ण अहिंसा है।आत्मवत् सर्वभूतेषु (सबको अपने जैसा समझना) ऐसा साक्षात्कार हो जाने पर ही योगी पूर्ण अहिंसक बनता है। ऐसी अनुभूति से जब जीवन रंग जाता है, तब किसी प्राणी के द्वारा कष्ट, अपमान व हानि पाकर भी बुद्धि में उत्तेजना नहीं होती, तभी व्यक्ति को अहिंसावादी कहा जा सकता है।सत्य: जो व्यक्ति मन, वचन कर्म से समान रहे, अर्थात् एक जैसी वाणी और मन का व्यवहार करना, जैसा देखा और अनुमान लगाकर बुद्धि से निर्णय किया अथवा जैसा सुना वैसा ही वाणी से कह दिया और मन में धारण किया।अपने ज्ञान के अनुसार, दूसरे व्यक्ति को ज्ञान करवाने में कहा हुआ वचन यदि धोखा देने वाला या भ्रम में डालने वाला न होकर ज्ञान करवाने वाला हो, तभी सत्य होता है। यह वचन उपकारी भी होना चाहिए। सब प्रकार से परीक्षा करके सर्वभूत हितकारी वचन बोलना ही सत्य है।अस्तेय: दूसरों के पदार्थों की ओर ध्यान न देना, उन्हें चुराने का विचार मन में न लाना तथा धन, भूमि, संपत्ति, नारी विद्या आदि किसी भी ऐसी वस्तु, जिसे अपने पुरुषार्थ से अर्जित नहीं किया या किसी ने हमें भेंट या पुरस्कार में नहीं दिया, को लेने का विचार स्वप्न में भी नहीं आने देना, अस्तेय का पूर्ण स्वरूप कहलाता है। गृहस्थ यदि अति तृष्णा न करे, तो इस दोष से काफी हद तक मुक्त हो सकता है।ब्रह्मचर्य: प्रभु का ध्यान करते हुए अपनी समस्त इन्द्रियों सहित गुप्तेन्द्रियों पर संयम रखना, विशेषकर मन, वाणी तथा शरीर से यौन सुख प्राप्त न करना ब्रह्मचर्य है।सभी इन्द्रियों पर यम निमयों के आचरण द्वारा अधिकार प्राप्त करके आत्मोत्थान का प्रयत्न करना, असत्य आचरण, चोरी, मांस भक्षण, खट्टे-तीखे पदार्थ खाना, मादक द्रव्य का सेवन करना, जुआ खेलना, काम क्रोध, लोभ, मोह, मैथुन आदि का त्याग करना ब्रह्मचर्य है।अपरिग्रह: ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों के विषय रूप भोगों के उपयोग में या विषयों का उपार्ज़न व संग्रह करने में, उनकी रक्षा करने, उन्हें स्थिर रखने में हिंसा तथा उनकी क्षीणता में होने वाले कष्टों को देखकर उन पर विचार करके उन्हें मन, वचन, कर्म से स्वीकार न करना अपरिग्रह कहलाता है।इस प्रकार गुण-दोष की निर्णायक बुद्धि जब इन विषयों को भोगने में पाप तथा हिंसा का निश्चय करती है, तभी अपरिग्रह होता है, अन्यथा यह परिग्रह है, विषय उपभोग है, विषय सेवन है।

योग के आठ अंगों में नियम दूसरी पायदान है। योगासन के अन्य अंगों की तरह नियम भी सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।नियम का पालन व्यक्ति को स्वयं करना पड़ता है, ये भी पांच प्रकार के हैं- शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान।
यम दूसरों के साथ व्यवहार से संबंधित हैं और नियम निज के पालन के लिए हैं।
शौच : शरीर तथा मन की पवित्रता शौच है। पवित्रता दो प्रकार की होती है, बाह्म और आंतरिक। मिट्टी, उबटन, त्रिफला साबुन आदि लगाकर जल से स्नान करने से त्वचा एवं अंगों की शुद्धि होती है और काम, क्रोध, लोभ, मोह अहंकार आदि को त्याग कर मन शुद्ध होता है सत्याचरण से।
ईर्षा, द्वेष, तृष्ण, अभियान, कुविचार व पंच क्लेशों को छोड़ने से तथा दया, क्षमा, नम्रता, स्नेह, मधुर भाषण तथा त्याग से आंतरिक पवित्रता आ जाती है।
संतोष : शरीर के पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त धन से अधिक की लालसा न करना। न्यूनाधिक की प्राप्ति पर शोक या हर्ष न करना संतोष है। अपने कर्तव्य का पालन करते हुए जो प्राप्त हो, उसी से संतुष्ट रहना या प्रभु की कृपा से जो मिल जाए, उसे ही प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करना संतोष है। जब विचार पूर्वक अपने भाग्य पर विश्वास दृढ़ होगा, तभी संतोष होता है।
तप : सुख-दु:ख, सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास आदि को सहन करते हुए मन तथा शरीर को साधना तप है। कुवृत्तियों का सदा निवारण करते रहना, मान, अपमान, हानि, निंदा से भी बुद्धि का संतुलन न खोना, हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार, परिग्रह आदि यम नियमों की विपरीत भावनाओं का दमन करना, विषयों में दौड़ने वाली इन्द्रियों और मन का दमन करते रहना तथा आसक्तियों से स्वयं को हटाए रखना तप है।
स्वाध्याय : अपनी रुचि तथा निष्ठा के अनुसार विचार शुद्धि और ज्ञान प्राप्त करने के लिए सामाजिक, वैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक विषयों का नित्य नियम से पठन करना, मनन करना और सत्संग तथा विचारों का अदान-प्रदान करना स्वाध्याय कहलाता है।
ईश्वर प्रणिधान : बुद्धि, नम्रता, भक्ति विशेष तथा पूर्ण तन्मयता के साथ प्रत्येक कर्म को फल सहित, परमात्मा को निर्मल भाव से सानंद समिर्पत करना ईश्वर प्रणिधान कहलाता है।
कर्म किए बिना कोई प्राणी रह नहीं सकता। जो भी कर्म मैं कर रहा हूं, वह प्रभु के आदेशानुसार कर रहा हूं। इसमें कर्तापन में अभियान त्याग का भाव ही प्रबल रहता है।
इस प्रकार उपासक अपनी देह आदि से किए गए सभी कर्म तथा फलाफल प्रभु को सहर्ष अर्पित करता है। फलत: दंभ के कलुष से व्यक्ति का अंत:करण सर्वदा रहित हो जाता है। ये सब शुद्ध मन से ही संभव है।

15 फ़रवरी 2009

सूर्य नमस्कार


सूर्य नमस्कार

शांति या सुख का अनुभव करना या बोध करना अलौकिक ज्ञान प्राप्त करने जैसा है, यह तभी संभव है, जब आप पूर्णतः स्वस्थ हों। अच्छा स्वास्थ्य प्राप्त करने के यूं को कई तरीके हैं, उनमें से ही एक आसान तरीका है योगासन व प्राणायाम करना।यहां विभिन्न प्रकार के योगासनों की सचित्र जानकारी दी जा रही है, जिससे आप अपनी पसंद के योगासन व प्राणायाम कर सेहत लाभ ले सकते हैं। योगासन व प्राणायाम की अगली कड़ी में हम आपको सूर्य नमस्कार से परिचित करवाते हैं-सूर्य नमस्कार योगासनों में सर्वश्रेष्ठ प्रक्रिया है। यह अकेला अभ्यास ही साधक को सम्पूर्ण योग व्यायाम का लाभ पहुंचाने में समर्थ है। इसके अभ्यास से साधक का शरीर निरोग और स्वस्थ होकर तेजस्वी हो जाता है। 'सूर्य नमस्कार' स्त्री, पुरुष, बाल, युवा तथा वृद्धों केलिए भी उपयोगी बताया गया है। सूर्य नमस्कार का अभ्यास बारह स्थितियों में किया जाता है, जो निम्नलिखित है-(1) दोनों हाथों को जोड़कर सीधे खड़े हों। नेत्र बंद करें। ध्यान 'आज्ञा चक्र' पर केंद्रित करके 'सूर्य भगवान' का आह्वान 'ॐ मित्राय नमः' मंत्र के द्वारा करें।(2) श्वास भरते हुए दोनों हाथों को कानों से सटाते हुए ऊपर की ओर तानें तथा भुजाओं और गर्दन को पीछे की ओर झुकाएं। ध्यान को गर्दन के पीछे 'विशुद्धि चक्र' पर केन्द्रित करें।(3) तीसरी स्थिति में श्वास को धीरे-धीरे बाहर निकालते हुए आगे की ओर झुकाएं। हाथ गर्दन के साथ, कानों से सटे हुए नीचे जाकर पैरों के दाएं-बाएं पृथ्वी का स्पर्श करें। घुटने सीधे रहें। माथा घुटनों का स्पर्श करता हुआ ध्यान नाभि के पीछे 'मणिपूरक चक्र' पर केन्द्रित करते हुए कुछ क्षण इसी स्थिति में रुकें। कमर एवं रीढ़ के दोष वाले साधक न करें।(4) इसी स्थिति में श्वास को भरते हुए बाएं पैर को पीछे की ओर ले जाएं। छाती को खींचकर आगे की ओर तानें। गर्दन को अधिक पीछे की ओर झुकाएं। टांग तनी हुई सीधी पीछे की ओर खिंचाव और पैर का पंजा खड़ा हुआ। इस स्थिति में कुछ समय रुकें। ध्यान को 'स्वाधिष्ठान' अथवा 'विशुद्धि चक्र' पर ले जाएँ। मुखाकृति सामान्य रखें।(5) श्वास को धीरे-धीरे बाहर निष्कासित करते हुए दाएं पैर को भी पीछे ले जाएं। दोनों पैरों की एड़ियां परस्पर मिली हुई हों। पीछे की ओर शरीर को खिंचाव दें और एड़ियों को पृथ्वी पर मिलाने का प्रयास करें। नितम्बों को अधिक से अधिक ऊपर उठाएं। गर्दन को नीचे झुकाकर ठोड़ी को कण्ठकूप में लगाएं। ध्यान 'सहस्रार चक्र' पर केन्द्रित करने का अभ्यास करें।(6) श्वास भरते हुए शरीर को पृथ्वी के समानांतर, सीधा साष्टांग दण्डवत करें और पहले घुटने, छाती और माथा पृथ्वी पर लगा दें। नितम्बों को थोड़ा ऊपर उठा दें। श्वास छोड़ दें। ध्यान को 'अनाहत चक्र' पर टिका दें। श्वास की गति सामान्य करें।(7) इस स्थिति में धीरे-धीरे श्वास को भरते हुए छाती को आगे की ओर खींचते हुए हाथों को सीधे कर दें। गर्दन को पीछे की ओर ले जाएं। घुटने पृथ्वी का स्पर्श करते हुए तथा पैरों के पंजे खड़े रहें। मूलाधार को खींचकर वहीं ध्यान को टिका दें।(8) यह स्थिति - पांचवीं स्थिति के समान(9) यह स्थिति - चौथी स्थिति के समान(10) यह स्थिति- तीसरी स्थिति के समान(11) यह स्थिति - दूसरी स्थिति के समान(12) यह स्थिति - पहली स्थिति की भाँति रहेगी।सूर्य नमस्कार की उपरोक्त बारह स्थितियाँ हमारे शरीर को संपूर्ण अंगों की विकृतियों को दूर करके निरोग बना देती हैं। यह पूरी प्रक्रिया अत्यधिक लाभकारी है। इसके अभ्यासी के हाथों-पैरों के दर्द दूर होकर उनमें सबलता आ जाती है। गर्दन, फेफड़े तथा पसलियों की मांसपेशियां सशक्त हो जाती हैं, शरीर की फालतू चर्बी कम होकर शरीर हल्का-फुल्का हो जाता है। सूर्य नमस्कार के द्वारा त्वचा रोग समाप्त हो जाते हैं अथवा इनके होने की संभावना समाप्त हो जाती है। इस अभ्यास से कब्ज आदि उदर रोग समाप्त हो जाते हैं और पाचनतंत्र की क्रियाशीलता में वृद्धि हो जाती है। इस अभ्यास के द्वारा हमारे शरीर की छोटी-बड़ी सभी नस-नाड़ियां क्रियाशील हो जाती हैं, इसलिए आलस्य, अतिनिद्रा आदि विकार दूर हो जाते हैं। सूर्य नमस्कार की तीसरी व पांचवीं स्थितियां सर्वाइकल एवं स्लिप डिस्क वाले रोगियों के लिए वर्जित हैं।
-- रामगोपाल जाट

14 फ़रवरी 2009

शरीर और मन का संतुलन है योग

शरीर और मन का संतुलन है योग- रामगोपाल जाट
योग शब्द के दो अर्थ हैं और दोनों ही महत्वपूर्ण हैं। पहला है- जोड़ और दूसरा है समाधि। जब तक हम स्वयं से नहीं जुड़ते, समाधि तक पहुँचना कठिन होगा।
आष्टांग योग
पतंजलि ने ईश्वर तक, सत्य तक, स्वयं तक, मोक्ष तक या कहो कि पूर्ण स्वास्थ्य तक पहुँचने की आठ सीढ़ियाँ निर्मित की हैं। आप सिर्फ एक सीढ़ी चढ़ो तो दूसरी के लिए जोर नहीं लगाना होगा, सिर्फ पहली पर ही जोर है। पहल करो।
योग दर्शन या धर्म नहीं, गणित से कुछ ज्यादा है। दो में दो मिलाओ चार ही आएँगे। चाहे विश्वास करो या मत करो, सिर्फ करके देख लो। आग में हाथ डालने से हाथ जलेंगे ही, यह विश्वास का मामला नहीं है।योग है विज्ञान : 'योग धर्म, आस्था और अंधविश्वास से परे है। योग एक सीधा विज्ञान है। प्रायोगिक विज्ञान है। योग है जीवन जीने की कला। योग एक पूर्ण चिकित्सा पद्धति है। एक पूर्ण मार्ग है-राजपथ। दरअसल धर्म लोगों को खूँटे से बाँधता है और योग सभी तरह के खूँटों से मुक्ति का मार्ग बताता है।'-ओशोजैसे बाहरी विज्ञान की दुनिया में आइंस्टीन का नाम सर्वोपरि है, वैसे ही भीतरी विज्ञान की दुनिया के आइंस्टीन हैं पतंजलि। जैसे पर्वतों में हिमालय श्रेष्ठ है, वैसे ही समस्त दर्शनों, विधियों, नीतियों, नियमों, धर्मों और व्यवस्थाओं में योग श्रेष्ठ है।आष्टांग योग : पतंजलि ने ईश्वर तक, सत्य तक, स्वयं तक, मोक्ष तक या कहो कि पूर्ण स्वास्थ्य तक पहुँचने की आठ सीढ़ियाँ निर्मित की हैं। आप सिर्फ एक सीढ़ी चढ़ो तो दूसरी के लिए जोर नहीं लगाना होगा, सिर्फ पहली पर ही जोर है। पहल करो। जान लो कि योग उस परम शक्ति की ओर क्रमश: बढ़ने की एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। आप यदि चल पड़े हैं तो पहुँच ही जाएँगे।
बदलो स्वयं को
आपको ईश्वर को जानना है, सत्य को जानना है, सिद्धियाँ प्राप्त करना हैं या कि सिर्फ स्वस्थ रहना है, तो पतंजलि कहते हैं कि शुरुआत शरीर के तल से ही करना होगी। शरीर को बदलो मन बदलेगा। मन बदलेगा तो बुद्धि बदलेगी।
योग वृहत्तर विषय है। आपने सुना होगा- ज्ञानयोग, भक्तियोग, धर्मयोग और कर्मयोग। इन सभी में योग शब्द जुड़ा हुआ है। फिर हठयोग भी सुना होगा, लेकिन इन सबको छोड़कर जो राजयोग है, वही पतंजल‍ि का योग है।इसी योग का सर्वाधिक प्रचलन और महत्व है। इसी योग को हम आष्टांग योग के नाम से जानते हैं। आष्टांग योग अर्थात योग के आठ अंग। दरअसल पतंजल‍ि ने योग की समस्त विद्याओं को आठ अंगों में श्रेणीबद्ध कर दिया है। अब इससे बाहर कुछ भी नहीं है।प्रारम्भिक पाँच अंगों से योग विद्या में प्रविष्ठ होने की तैयारी होती है, अर्थात समुद्र में छलाँग लगाकर भवसागर पार करने के पूर्व तैराकी का अभ्यास इन पाँच अंगों में सिमटा है। इन्हें किए बगैर भवसागर पार नहीं कर सकते और जो इन्हें करके छलाँग नहीं लगाएँगे, तो यहीं रह जाएँगे। बहुत से लोग इन पाँचों में पारंगत होकर योग के चमत्कार बताने में ही अपना जीवन नष्ट कर बैठते हैं।यह आठ अंग हैं- (1) यम (2) नियम (3) आसन (4) प्राणायाम (5) प्रत्याहार (6) धारणा (7) ध्यान (8) समाधि। उक्त आठ अंगों के अपने-अपने उप अंग भी हैं। वर्तमान में योग के तीन ही अंग प्रचलन में हैं- आसन, प्राणायाम और ध्यान।बदलो स्वयं को : आपको ईश्वर को जानना है, सत्य को जानना है, सिद्धियाँ प्राप्त करना हैं या कि सिर्फ स्वस्थ रहना है, तो पतंजलि कहते हैं कि शुरुआत शरीर के तल से ही करना होगी। शरीर को बदलो मन बदलेगा। मन बदलेगा तो बुद्धि बदलेगी। बुद्धि बदलेगी तो आत्मा स्वत: ही स्वस्थ हो जाएगी। आत्मा तो स्वस्थ है ही। एक स्वस्थ आत्मचित्त ही समाधि को उपलब्ध हो सकता है।जिनके मस्तिष्क में द्वंद्व है, वह हमेशा चिंता, भय और संशय में ही ‍जीते रहते हैं। उन्हें जीवन एक संघर्ष ही नजर आता है, आनंद नहीं। योग से समस्त तरह की चित्तवृत्तियों का निरोध होता है- योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:। चित्त अर्थात बुद्धि, अहंकार और मन नामक वृत्ति के क्रियाकलापों से बनने वाला अंत:करण। चाहें तो इसे अचेतन मन कह सकते हैं, लेकिन यह अंत:करण इससे भी सूक्ष्म माना गया है।दुनिया के सारे धर्म इस चित्त पर ही कब्जा करना चाहते हैं, इसलिए उन्होंने तरह-तरह के नियम, क्रिया कांड, ग्रह-नक्षत्र और ईश्वर के प्रति भय को उत्पन्न कर लोगों को अपने-अपने धर्म से जकड़े रखा है। पतंजल‍ि कहते हैं कि इस चित्त को ही खत्म करो।योग विश्वास करना नहीं सिखाता और न ही संदेह करना। और विश्‍वास तथा संदेह के बीच की अवस्था संशय के तो योग बहुत ही खिलाफ है। योग कहता है कि आपमें जानने की क्षमता है, इसका उपयोग करो।आपकी आँखें हैं इससे और भी कुछ देखा जा सकता है, जो सामान्य तौर पर दिखता नहीं। आपके कान हैं, इनसे वह भी सुना जा सकता है जिसे अनाहत कहते हैं। अनाहत अर्थात वैसी ध्वन‍ि जो किसी संघात से नहीं जन्मी है, जिसे ज्ञानीजन ओम कहते हैं, वही आमीन है, वही ओमीन और ओंकार है।अंतत : तो, सर्वप्रथम आप अपनी इंद्रियों को बलिष्ठ बनाओ। शरीर को डायनामिक बनाओ। और इस मन को स्वयं का गुलाम बनाओ। और यह सब कुछ करना बहुत सरल है- दो दुनी चार जैसा।योग कहता है कि शरीर और मन का दमन नहीं करना है, बल्कि इसका रूपांतर करना है। इसके रूपांतर से ही जीवन में बदलाव आएगा। यदि आपको लगता है कि मैं अपनी आदतों को नहीं छोड़ पा रहा हूँ, जिनसे कि मैं परेशान हूँ तो चिंता मत करो। उन आदतों में एक 'योग' को और शामिल कर लो और बिलकुल लगे रहो। आप न चाहेंगे तब भी परिणाम सामने आएँगे।
लेखन , संयोजन -- रामगोपाल जाट , कसुम्बी द्वारा

योगसूत्र - एक परिचय __ रामगोपाल जाट

योग पर लिखा गया सर्वप्रथम सुव्यव्यवस्थित ग्रंथ है-योगसूत्र। योगसूत्र को पांतजलि ने 200 ई.पूर्व लिखा था। इसे योग पर लिखी पहली सुव्यवस्थित लिखित कृ‍ति मानते है।
राजयोग
पातंजलि की इस अतुल्य नीधि को मूलत: राजयोग कहा जाता है। इस ‍ग्रंथ का महत्व इसलिए अधिक है क्योंकि इसमें हठयोग सहित योग के सभी अंगों तथा धर्म की समस्त नीति, नियम, रहस्य और ज्ञान की बातों को क्रमबद्ध सिमेट दिया गया है।
इस पुस्तक में 195 सूत्र हैं जो चार अध्यायों में विभाजित है। पातंजलि ने इस ग्रंथ में भारत में अनंत काल से प्रचलित तपस्या और ध्यान-क्रियाओं का एक स्थान पर संकलन किया और उसका तर्क सम्मत सैद्धांतिक आधार प्रस्तुत किया। यही संपूर्ण धर्म का सुव्यवस्थित केटेग्राइजेशन है।
राजयोग : पातंजलि की इस अतुल्य नीधि को मूलत: राजयोग कहा जाता है। इस पर अनेक टिकाएँ एवं भाष्य लिखे जा चुके है। इस ‍ग्रंथ का महत्व इसलिए अधिक है क्योंकि इसमें हठयोग सहित योग के सभी अंगों तथा धर्म की समस्त नीति, नियम, रहस्य और ज्ञान की बातों को क्रमबद्ध सिमेट दिया गया है।इस ग्रंथ के चार अध्याय है-
(1) समाधिपाद
(2) साधनापाद
(3) विभूतिपाद
(4) कैवल्यपाद।

(1)समाधिपाद : योगसूत्र के प्रथम अध्याय 'समाधिपाद' में पातंजली ने योग की परिभाषा इस प्रकार दी है- 'योगश्चितवृत्तिर्निरोध'- अर्थात चित्त की वृत्तियों का निरोध करना ही योग है। मन में उठने वाली विचारों और भावों की श्रृंखला को चित्तवृत्ति अथवा विचार-शक्ति कहते है। अभ्यास द्वारा इस श्रृंखला को रोकना ही योग कहलाता है। इस अध्याय में समाधि के रूप और भेदों, चित्त तथा उसकी वृत्तियों का वर्णन है।

(2)साधनापाद : योगसूत्र के दूसरे अध्याय- 'साधनापाद' में योग के व्यावहारिक पक्ष को रखा है। इसमें अविद्यादि पाँच क्लेशों को सभी दुखों का कारण मानते हुए इसमें दु:ख शमन के विभिन्न उपाय बताए गए है। योग के आठ अंगों और साधना विधि का अनुशासन बताया गया है।

(3)विभूतिपाद : योग सूत्र के अध्याय तीन 'विभूतिपाद' में धारणा, ध्यान और समाधि के संयम और सिद्धियों का वर्णन कर कहा गया है कि साधक को भूलकर भी सिद्धियों के प्रलोभन में नहीं पड़ना चाहिए।

(4) कैवल्यपाद : योगसूत्र के चतुर्थ अध्याय 'कैवल्यपाद' में समाधि के प्रकार और वर्णन को बताया गया है। अध्याय में कैवल्य प्राप्त करने योग्य चित्त का स्वरूप बताया गया है साथ ही कैवल्य अवस्था कैसी होती है इसका भी जिक्र किया गया है। यहीं पर योग सूत्र की समाप्ति होती है।अंतत: : पांतजलि ने ग्रंथ में किसी भी प्रकार से अतिरिक्त शब्दों का इस्लेमाल नहीं किया और ना ही उन्होंने किसी एक ही वाक्य को अनावश्यक विस्तार दिया। जो बात दो शब्द में कही जा सकती है उसे चार में नहीं कहा। यही उनके ग्रंथ की विशेषता है।

लेखक -- रामगोपाल जाट , कसुम्बी , नागौर

13 फ़रवरी 2009

प्राणायाम

प्राणाकर्षण प्राणायाम (1) ''प्रातःकाल नित्य कर्म से निवृत्त होकर पूर्वाभिमुख पालथी मारकर बैठिए । दोनों हाथ घुटनों पर रखिए । मेरुदण्ड सीधा रखिए । नेत्र बन्द कर लीजिए । ध्यान कीजिए की अखिल आकाश में तेज और शक्ति से ओत-प्रोत प्राण-तत्त्व व्याप्त हो रहा है । गरम भाप के, सूर्य के प्रकाश में चमकते हुए जैसी बादलों शक्ल के प्राण का उफान हमारे चारों ओर उमड़ता चला आ रहा है और उस प्राण उफान के बीच हम निश्चित, शान्त-चित्त एवं प्रसन्न मुद्रा में बैठे हुए हैं ।''
(२) ''नासिका के दोनों छिद्रों से धीरे-धीरे साँस खींचना आरम्भ कीजिए और भावना कीजिए कि प्राण-तत्त्व के उफनते हुए बादलों को हम अपनी साँस द्वारा भीतर खींच रहे हैं । जिस प्रकार पक्षी अपने घोंसले में, साँप अपने बिल में प्रवेश करता है, उसी प्रकार यह अपने चारों ओर बिखरा हुआ प्राण-प्रवाह हमारी नासिका द्वारा साँस के साथ शरीर के भीतर प्रवेश करता है और मस्तिष्क, छाती, हृदय, पेट, आतों से लेकर समस्त अंगों में प्रवेश कर जाता है ।''
(३) ''जब साँस पूरी खींच जाय तो उसे भीतर रोकिये और भावना कीजिए कि-जो प्राण-तत्त्व खींचा गया है, उसे हमारी भीतरी अंग-प्रत्यंग सोख रहे हैं । जिस प्रकार मिट्टी पर पानी डाला जाय तो वह उसे सोख जाती है, उसी प्रकार अपने अंग सूखी मिट्टी के समान हैं और जलरूपी इस खींचे हुए प्राण को सोखकर अपने अन्दर सदा के लिए धारण कर रहे हैं । साथ ही प्राण-तत्त्व में सम्मिश्रित चैतन्य, तेज, बल, उत्साह, साहस, धैर्य, पराक्रम सरीखे अनेक तत्त्व हमारे अंग-प्रत्यंग में स्थिर हो रहे हैं ।''
(४) ''जितनी देर साँस आसानी से रोकी जा सके उतनी देर रोकने के बाद धीरे-धीरे साँस बाहर निकालिए, साथ ही भावना कीजिए कि प्राणवायु का सारतत्त्व हमारे अंग-प्रत्यंगों के द्वारा खींच लिए जाने के बाद अब वैसा ही निकम्मा वायु बाहर निकाला जा रहा है जैसा कि मक्खन निकाल लेने के बाद निस्सार दूध हटा दिया जाता है । शरीर और मन में जो विकार थे, वे सब इस निकलती हुई साँस के साथ घुल गये हैं और धुँए के समान अनेक दोषों को लेकर वह बाहर निकल रहे हैं ।''
(५) ''पूरी साँस बाहर निकल जाने के बाद कुछ देर साँस रोकिए, अर्थात् बिना साँस के रहिए और भावना कीजिए कि अन्दर के जो दोष बाहर निकाले गये थे उनको वापिस न लौटने देने की दृष्टि से दरवाजा बन्द कर दिया गया है और वे बहिष्कृत होकर हमसे बहुत दूर उड़े जा रहे हैं ।''

लोम-विलोम प्राणायाम उपरोक्त प्राणाकर्षण प्राणायाम के बाद लोम-विलोम सूर्य-भेदन प्राणायाम का विधान है, जिसकी पद्धति निम्न प्रकार है ।
(1)किसी शान्त एकान्त स्थान में प्रातःकाल स्थिर चित्त होकर बैठिए । पूर्व की ओर मुख, पालथी मारकर सरल पद्मासन से बैठना, मेरुदण्ड सीधा, नेत्र अधुखुले घुटनों पर दोनों हाथ । यह प्राण- मुद्रा कहलाती है, इसी पर बैठना चाहिए ।
(2)बायें हाथ को मोड़कर तिरछा कीजिए । उसकी हथेली पर दाहिने हाथ की कोहनी रखिए । दाहिना हाथ ऊपर उठाइये । अँगूठा दाहिने नथुने पर और मध्यमा तथा अनामिका उँगलियाँ बायें नथुने पर रखिए ।
(3) बायें नासिका के छिद्र को मध्यमा (बीच की)और अनामिका (तीसरे नम्बर की) उँगली से बन्द की लीजिए । साँस फेफड़े तक ही सीमित न रहे, उसे नाभि तक ले जाना चाहिए और धीरे-धीरे इतनी वायु पेट में ले जानी चाहिए, जिससे वह पूरी तरह फूल जाय ।
(4) ध्यान कीजिए कि सूर्य की किरणों जैसा प्रवाह वायु में सम्मिलित होकर दाहिने नासिका छिद्र में अवस्थित पिंगला नाड़ी द्वारा अपने शरीर में प्रवेश कर रहा है और उसकी ऊष्मा अपने भीतरी अंग-प्रत्यंगों को तेजस्वी बना रही है ।
(5) साँस को कुछ देर भीतर रोकिये । दोनों नासिका छिद्र बन्द कर लीजिए और ध्यान कीजिए कि नाभिचक्र में प्राण-वायु द्वारा एकत्रित हुआ तेज नाभि चक्र में एकत्रित हो रहा है । नाभि स्थल में चीरकाल से प्रसुप्त पड़ा हुआ सूर्यचक्र इस आगत प्रकाशवान् प्राण-वायु से प्रभावित होकर चमकीला हो रहा है और उसकी दमक बढ़ती जा रही है ।
(6) दाहिने नासिका छिद्र को अँगूठे से बन्द कर लीजिए दायाँ खोल दीजिए । साँस को धीरे-धीरे से बायें नथुने से बाहर निकालिए और ध्यान कीजिए कि चक्र को सुषुप्त और धुंधला बनाये रहने वाले कल्मष इस छोड़ी गई साँस के साथ बाहर निकल रहे हैं । इन कल्मषों के मिल जाने के कारण साँस खींचते समय जो शुभ्र वर्ण तेजस्वी प्रकाश भीतर गया था, वह अब मलीन हो गया और होकर साँस के साथ बायें नथुने की इड़ा द्वारा बाहर निकल रहा है ।
(7) दोनों नथुने फिर बन्द कर लीजिए । फेफड़ों को बिना साँस के खाली रखिए । ध्यान कीजिए कि बाहरी प्राण बाहर रोक दिया गया है । उसका दबाव भीतरी प्राण पर बिल्कुल भी न रहने से वह हलका हो गया है । नाभिक चक्र में जितना प्राण सूर्य पिण्ड की तरह एकत्रित था वह तेज-पुंज की तरह ऊपर की ओर अग्नि शिखाओं की तरह ऊपर उठ रहा है । उसकी लपटें पेट के उर्ध्व भाग, फुफ्फुस को वेधती हुई कण्ठ तक पहुँच रही है । भीतरी अवयवों में सुषुम्ना नाड़ी में से प्रस्फुटित हुआ यह गौण तेज अंतःप्रदेश को प्रकाशवान् बना रहा है ।
(8) अँगूठे से दाहिना छिद्र बन्द कीजिए और बायें नथुने से साँस खींचते हुए ध्यान कीजिए कि इड़ा नाड़ी द्वारा सूर्य प्रकाश जैसा प्राण-तत्व साँस से मिलकर शरीर में भीतर प्रवेश कर रहा है और वह तेज सुषुम्ना विनिर्मित नाभि-स्थल के सूर्य चक्र में प्रवेश करके वहाँ अपना भण्डार जमा कर इस प्रकार पाँच अंगों में विभाजित इस प्राणाकर्षण प्राणायाम को नित्य ही जप से पूर्व करना चाहिए । आरम्भ ५ प्राणायाम से किया जाय । अर्थात उपरोक्त क्रिया पाँच बार दुहराई जाय । इसके बाद हर महीने एक प्राणायाम बढ़ाया जा सकता है ।
यह प्रक्रिया धीरे-धीरे बढ़ाते हुए एक वर्ष में आधा घण्टा तक पहुँचा देनी चाहिए'' नाड़ी शोधन प्राणायाम (१) प्रातः काल पूर्व को मुख करके कमर सीधी रखकर सुखासन से, पालथी मार कर बैठिये । नेत्रों को अधखुले रखिए ।
(२) दाहिना नासिका का छिद्र बन्द कीजिए । बाएँ छिद्र से साँस खींचिए और उसे नाभिचक्र तक खींचते जाइए ।
(३) ध्यान कीजिए कि नाभि के स्थान में पूर्णिमा के पूर्ण चन्द्रमा के समान पीतवर्ण शीतल प्रकाश विद्यमान है । खींचा हुआ साँस उसे स्पर्श कर रहा है ।
(४) जितने समय में साँस खींचा गया था, उतने ही समय भीतर रोकिये और ध्यान करते रहिए कि नाभिचक्र में स्थित पूर्ण चन्द्र के प्रकाश को खींचा, प्रकाशवान् बन रहा है ।
(५) जिस नथुने से साँस खींचा था, उसी बायें छिद्र से बाहर निकालिये और ध्यान कीजिए कि नाभिचक्र के चन्द्रमा को छूकर वापिस लौटने वाली प्रकाशवान् एवं शीतल वायु इड़ा नाड़ी की छिद्र नलिका को शीतल एवं प्रकाशवान् बनाती हुई वापिस लौट रही है ।
(६) कुछ देर साँस बाहर रोकिए और फिर उपरोक्त क्रिया आरम्भ कीजिए । बायें नथुने से ही साँस खींचिए और उसी से निकालिए । दाहिने छिद्र को अँगूठे से बन्द रखिए । इसी को तीन बार कीजिए । (७) जिस प्रकार बायें नथुने से पूरक, कुम्भक, रेचक, बाह्य कुम्भक किया था, उसी प्रकार दाहिने नथुने से भी कीजिए । नाभिचक्र में चन्द्रमा के स्थान पर सूर्य का ध्यान कीजिए और साँस छोड़ते समय भावना कीजिए कि नाभि स्थित सूर्य को छूकर वापिस लौटने वाली वायु श्वास नली के भीतर उष्णता और प्रकाश उत्पन्न करती हुई लौट रही है ।
(8) बायें नासिका स्वर को बन्द रखकर दाहिना छिद्र से भी इस क्रिया को तीन बार कीजिए ।
(9) अब नासिका के दोनों छिद्र खोल दीजिए । दोनों से साँस खींचिए और भीतर रोकिए और मुँह खोलकर साँस बाहर निकाल दीजिए । यह विधि एक बार ही करना चाहिए ‍ तीन बार बायें नासिका छिद्र से साँस खींचते और छोड़ते हुए नाभि चक्र के चन्द्रमा का शीतल ध्यान, तीन बार दाहिने नासिका छिद्र से साँस खींचते छोड़ते हुए सूर्य का उष्ण प्रकाश वाला ध्यान, एक बार दोनों छिद्रों से साँस खींचते हुए मुख से साँस निकालने की क्रिया यह सात विधान मिलकर एक नाड़ी शोधन प्राणायाम बनता है ।
प्राणायाम के अभ्यासी के लिए कुछ सामान्य नियमों का पालन बहुत आवश्यक हैः-
1. प्राणायाम शुद्ध वायु में खुले स्थान में करें घर में करें तो कमरे की खिड़कियाँ खुली रहें और स्थान यथा सम्भव शान्त हो ।
2. प्राणायाम के समय शरीर में बहुत अधिक वस्त्र न लादें जायें ।
3. प्राणायाम के बाद वजनदार वस्तुयें न उठायें तथा स्वर्ण, चाँदी आदि धातुओं को छोड़कर कुचालक धातु जैसे लोहे आदि का स्पर्श न करें ।
4. तुरन्त पेट भर भोजन न करें हलका और सात्त्विक आहार ही इन दिनों ग्रहण किया जाए पर पानी बिना प्यास के भी दिन में बार-बार पियें ।
5. ब्रह्मचर्य व्रत का यथा सम्भव अधिक से अधिक पालन करना चाहिए । गायत्री उपासक का संकल्प जब प्राणायाम प्रक्रिया के साथ जुड़ता है, तो ब्रह्माण्ड व्यापी महाप्राण-तत्व उसकी ओर विशिष्ट रूप से प्रवाहित हो उठता है । साधक की आस्था के अनुरूप प्राणानुदान दयामयी की कृपा से प्राप्त होने लगते हैं । इस तरह प्राणायाम के अभ्यास से गायत्री उपासना से उपार्जित प्राण शक्ति की मात्रा द्रुत-गति से बढ़ती है और साधक को लौकिक, भौतिक एव आध्यात्मिक क्षमताओं से विभूषित कर देती है ।
--- रामगोपाल जाट
सोजन्य-- (गायत्री महाविद्या का तत्वदर्शन पृ.12.45)

10 फ़रवरी 2009

अष्टांग योग से मुक्ति

वेदों, शास्त्रों, पुराणों और योगदर्शन में मुक्ति यानी मोक्ष के बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है। योग-दर्शन के अनुसार जीवन में अष्टांग योग यानी यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा व समाधि के सम्यक पालन से मुक्ति मिलती है। जो मनुष्य ईश्वर की उपासना करके अविा, अज्ञानता और दूसरे दुखों से छूटकर सत्य और धर्म का पालन करता है, वह आत्मिक उन्नति करके मुक्ति को प्राप्त हो जाता है। योग दर्शन के मुताबिक मोक्ष प्राप्ति में पंच-कलेश यानी पांच तरह के दुखों का खात्मा होना बहुत जरूरी है। ये पांच दुख-अविा, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश हैं। इनसे छुटकारा पाए बगैर मुक्ति नहीं मिल सकती। इसके अलावा दुख में सुख यानी विषय तृष्णा, काम, क्रोध, लोभ, मोह, शोक,र् ईष्या, द्वेष आदि दुख रूप व्यवहार में सुख की आशा करना, ब्रह्मचर्य, निष्काम, शम, संतोष, विवेक, प्रसन्नता, प्रेम व मित्रता आदि को दुख मानना भी शास्त्रों में अविा माना गया है। इस अविा की वजह से ही मन में विकार, विषयों की उत्प8ाि होती रहती है। इसमें मनुष्य धन, परिवार, समाज व सम्मान (प्रतिष्ठा) को ही जीवन का लक्ष्य मानने लगता है। उसमें सदाचार की भावना, परोपकार, उदारता, मनुष्यता और तितिक्षा सहने की शक्ति समाप्त हो जाती है-ईश-कृपा न प्राप्त होने का यह भी एक महत्वपूर्ण कारण है। वेदों में मोक्ष का मतलब आत्मा का परमात्मा में विलीन होना बताया गया है यानी आवागमन के बंधन से जीव को छुटकारा मिलना मुक्ति है। न्याय शास्त्र के मुताबिक जब अविा का नाश हो जाता है, तब जीव के सारे दोष नष्ट हो जाते हैं। इससे अधर्म, अन्याय, विषयों के प्रति लगाव तथा दूसरी वासनाएं खत्म हो जाती हैं। इनके नष्ट होने से पुन: जन्म नहीं होता। इससे दुखों का अभाव हो जाता है। दुखों का अभाव होने से जीव परमानंद को यानी मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। आम धारणा के विपरीत मोक्ष प्राप्ति के बाद जीव की स्थिति के बारे में वैदिक ऋषि वेद, शास्त्रों में कहते हैं-मोक्ष यानी परमानंद की प्राप्ति के बाद जीव मनुष्य के अलावा दूसरे लोक-लोकांतरों में भ्रमण करता रहता है। उसके लिए परमात्मा के बंधन जैसी कोई बात नहीं होती। इसलिए बंधन से मुक्ति को ही मोक्ष माना गया है। मोक्ष के लिए ईश-कृपा को बहुत जरूरी माना गया है। इसलिए मनुष्य को प्रतिदिन कम से कम एक घंटे शुध्द मन व चित्त से ईश्वर का ध्यान करना चाहिए। इससे हृदय शुध्द, पवित्र और संकल्पशाली बनता जाता है। ईश-कीर्तन यानी स्तुति, प्रार्थना और उपासना करने वाला व्यक्ति ईश्वर के पास जल्दी पहुंच जाता है क्योंकि इससे उसके मन के विकार और विषय मिटकर वहां ईश्वर की मूर्ति यानी ईश्वरभाव प्रतिष्ठित हो जाता है। पुराणों में बताया गया है कि जो व्यक्ति परोपकार, तीर्थाटन, मंदिर निर्माण, हवन-यज्ञ आदि करता है, वह भगवान का अत्यंत प्रिय होता है। इसके अलावा जो व्यक्ति दोनों समय संध्या, कीर्तन, वंदन, गुरुसेवा, माता-पिता की सेवा, सत्याचरण, ब्रह्मचर्य का पालन और जगत की भलाई के लिए लगा रहता है, वह भी प्रभु की कृपा जल्दी प्राप्त कर लेता है। भागवत के मुताबिक वह मनुष्य बड़ा भाग्यशाली है जिसने अपना जीवन हरिकीर्तन के लिए निश्चित कर लिया है। ऐसा मनुष्य हमेशा के लिए आवागमन के चक्करों से छूटकर, प्रभु में विलीन हो जाता है।

तनाव मुक्ति के लिए प्रेक्षाध्यान

भौतिक प्रगति की तीव्र गति ने हमारे जीवन में अनेक समस्याओं को जन्म दिया है। उसमें प्रमुख है, तनाव। आज हम निरंतर जबरदस्त दबाव एवं तनावों के बीच जी रहे हैं। वर्तमान की जितनी बीमारियां है, उनके पीछे तनाव की मुख्य भूमिका है। हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, मधुमेह, अनिद्रा, कैंसर आदि रोगों में निरंतर वृध्दि हो रही है।
वर्तमान युग अतिरिक्त सक्रियता और दौड़ धूप का युग है। प्रतिस्पर्धा के कारण नैतिक आचरण का जीवन में अभाव एवं अति व्यस्तता के कारण दबाव तनाव में वृध्दि हो रही है। जो हमारी सामान्य जीवन धारा को अस्त-व्यस्त कर देती है।
आधुनिक भाव जगत से संबंध रखने वाले आवेश एवं आवेग,र् ईष्या, प्रतिस्पर्धा, घृणा, भय, सत्ता एवं संपत्ति के लिए संघर्ष, लालसाएं और वहम भी आदमी के दबाव तंत्र को प्रभावित करते हैं। मनुष्य सहित सभी प्राणियों में संकट आने पर आंतरिक तंत्र सक्रिय हो जाता है। संकट मिटने पर शारीरिक एवं मानसिक स्थिति सामान्य हो जाती है। यह अनैच्छिक क्रिया तंत्र द्वारा स्वत: घटित होता है। संकट की स्थिति बार-बार आती है, एवं दबाव की स्थिति लम्बे समय तक बनी रहने पर गंभीर गड़बड़ पैदा हो जाती है। अनेक प्रकार के रोगों को पैदा करने में दबाव बड़ा निमित्त बनता है। इस प्रकार तनाव उत्पन्न होने के अनेक कारण हैं।
आधुनिक औषध विज्ञान द्वारा तनाव मुक्ति के लिए प्रश्नमक एवं निद्रा लाने की गोलियां अस्थाई लाभ पहुंचाती है पर लंबे समय तक इनका सेवन एक समस्या बन जाता है। हमारे भीतर प्रकृति ने इस समस्या से निजात पाने के लिए भी व्यवस्था कर रखी है। जब भय या अस्वाभाविक स्थिति का निर्माण होता है, तो उससे निपटने के लिए शरीर की सक्रियता बढ़ जाती है। इसका उल्टा शरीर को शांत एवं स्वस्थ बनाने वाले 'टोपो ट्रोफिक प्रतिक्रिया' के द्वारा प्रतिरोधी क्रिया की जा सकती है। यह खोज डॉ. वाल्टर, स्विट्जरलैंड के शरीर विज्ञानी ने की है। डॉ. हर्बर्ट बैन्सन ने इस 'तानव मुक्ति की प्रक्रिया' नाम दिया है। इसके अतिरिक्त सरल, सहज एवं सबके द्वारा की जा सकने वाली क्रिया कार्योत्सर्ग है। इसके निरंतर अभ्यास से व्यक्ति तनाव मुक्त रह सकता है। यह बचाव भी है तथा उपचार भी है। इस प्रक्रिया को सीखकर प्रतिदिन आधा घंटा से एक घंटा अभ्यास करने पर वह व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में तनाव मुक्त रह सकता है। हम दिन भर में नींद, विश्राम एवं क्रियात्मकता से कितनी ही बार गुजरते हैं। इसके अतिरिक्त एक क्रिया और है, उससे भी हम अनेकों बार गुजरते हैं। इन स्थितियों से निपटने के लिए यदि संपूर्ण कार्योत्सर्ग का अभ्यास जागरूकता से करें तो हम उस थकान एवं मानसिक क्षति से बच सकते हैं।
कार्योंत्सर्ग की क्रिया द्वारा मांसपेशियों रूपी विद्युत पहुंचाने वाले स्नायु संबंध स्थगित किए जा सकते हैं। जो नींद की प्रक्रिया से अधिक उत्तम हैं। इस शिथिलीकरण से उसमें विद्युत प्रभाव को बहुत कम स्थिति तक ले जाया जा सकता है। इसमें ऊर्जा की खपत को न्यूनतम किया जा सकता है।
अनेक घंटों की अव्यवस्थित नींद की अपेक्षा यह आधा घंटा की जागृतिपूर्वक शिथिलीकरण से व्यक्ति की थकान व तनाव को भलीभांति दूर किया जा सकता है



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