06 अगस्त 2010

नजर सुं निरख्या

जितरी पास नजर सुं निरख्या, उतरा ही दूर गिया,
जितरा हरख हिये में राख्या, भीतर घाव किया,
अन्तस री आतस उर जागी,
धपळक आग हिये में लागी,
प्रीत तणी अमूझ अभागी,
पिघल रळक नैणां में छागी,
ज्यूँ ज्यूँ जतन किया रोकण रा , प्याला छलक गिया,
जितरा हरख हिय में राख्या, उतरा घाव किया,
अंतस मन कुरलाव गावे,
गुंगो गैलो जगत बतावे
सुण सुण मन काया कळपावै
इ जग ने अब कुण समझावे
खा खा जगत थपेड़ा काठा हिम्मत हार गिया
जितरा हरख हिय में राख्या भितर घाव किया
मत कर मान सोच मन मैला
संभल पांव धर जगत झमेला
प्रीत रीत जवानी खेला
ऊमर ढळतां जीव अकेला
हुय सके अळगो ही रहणो, मत ना भूल किया
जितरा हरख हिय में राख्या, भीतर घाव किया
जितरी पास नजर सुं निरख्या ,
उतरा ही दूर गिया,
जितरा हरख हिय में राख्या,
भीतर घाव किया,

सुस्नेही पाठकों ,
आप सभी का मुझे अपार स्नेह मिल रहा है आपके इ - सन्देश और फ़ोन जो मुझे आते है वो इस बात का सबूत है की आप इसको काफी पसंद करतें है,
पिछले काफी दिनों से मैं व्यस्त था , व्यस्त तो हूँ पर आज आपके लिए कुछ लिख रहा हूँ,
धन्यवाद
रामगोपाल जाट

29 जुलाई 2010

पाथल और पीथल


पातळ'र पीथळ

अरै घास री रोटी ही जद बन बिलावड़ो ले
भाग्यो।

नान्हो सो
अमर
यो चीख पड़्यो राणा रो सोयो दुख
जाग्यो।

हूं लड़्यो घणो हूं सह्यो घणो

मेवाड़ी मान बचावण
नै

हूं पाछ नहीं राखी रण में

बैरयाँ
री खात
खिंडावण
में,

जद याद करूं हळदी घाटी नैणां में रगत उतर
आवै,

सुख दुख रो साथी चेतकड़ो सूती सी हूक जगा
ज्यावै,

पण आज बिलखतो देखूं हूं

जद राज कंवर नै रोटी
नै,

तो क्षात्र-धरम नै भूलूं हूं

भूलूं हिंदवाणी चोटी
नै

मै'लां में छप्पन भोग जका मनवार बिनां करता
कोनी,

सोनै री थाळ्यां नीलम रै बाजोट बिनां धरता
कोनी,

हाय जका करता पगल्या

फूलां री कंवळी सेजां
पर,

बै आज रुळै भूखा तिसिया

हिंदवाणै सूरज रा
टाबर,

आ सोच हुई दो टूक तड़क राणा री भीम बजर
छाती,

आंख्यां में आंसू भर बोल्या मैं लिखस्यूं अकबर नै
पाती,

पण लिखूं कियां जद देखै है आडावळ ऊंचो हियो
लियां,

चितौड़ खड़्यो है मगरां में विकराळ भूत सी लियां
छियां,

मैं झुकूं कियां? है आण मनैं

कुळ रा केसरिया बानां
री,

मैं बुझूं कियां हूं सेस लपट

आजादी रै परवानां
री,

पण फेर अमर री सुण बुसक्यां राणा रो हिवड़ो भर
आयो,

मैं मानूं हूं दिल्लीस तनैं समराट् सनेशो
कैवायो।

राणा रो कागद बांच हुयो अकबर रो' सपनूं सो
सांचो,

पण नैण करयो
बिसवास नहीं जद बांच बांच
नै फिर बांच्यो,

कै आज हिंमाळो पिघळ बह्यो

कै आज हुयो सूरज
सीतळ,

कै आज सेस रो सिर डोल्यो

आ सोच हुयो समराट्
विकळ,

बस दूत इसारो पा भाज्यो पीथळ नै तुरत बुलावण
नै,

किरणां रो पीथळ आ पूग्यो ओ सांचो भरम मिटावण
नै,

बीं वीर बांकुड़ै पीथळ नै

रजपूती गौरव भारी
हो,

बो क्षात्र धरम रो नेमी हो

राणा रो प्रेम पुजारी
हो,

बैरयाँ
रै मन रो कांटो हो बीकाणूं पूत खरारो
हो,

राठौड़ रणां में रातो हो बस सागी तेज दुधारो
हो,

आ बात पातस्या जाणै हो

घावां पर लूण लगावण
नै,

पीथळ नै तुरत बुलायो हो

राणा री हार बंचावण
नै,

म्हे बांध लियो है पीथळ सुण पिंजरै में जंगळी शेर
पकड़,

ओ देख हाथ रो कागद है तूं देखां फिरसी कियां
अकड़?

मर डूब चळू भर पाणी में

बस झूठा गाल बजावै
हो,

पण टूट गयो बीं राणा रो

तूं भाट बण्यो बिड़दावै
हो,

मैं आज पातस्या धरती रो मेवाड़ी पाग पगां में
है,

अब बता मनै किण रजवट रै रजपूती खून रगां में
है?

जद पीथळ कागद ले देखी

राणा री सागी
सैनाणी,

नीचै स्यूं धरती खसक गई

आंख्यां में आयो भर
पाणी,

पण फेर कही ततकाल संभळ आ बात सफा ही झूठी
है,

राणा री पाघ सदा ऊंची राणा री आण अटूटी
है।

ल्यो हुकम हुवै तो लिख पूछूं

राणा नै कागद रै
खातर,

लै पूछ भलांई पीथळ तूं

आ बात सही, बोल्यो
अकबर,


म्हे आज सुणी है नाहरियो

स्याळां रै सागै
सोवैलो,

म्हे आज सुणी है सूरजड़ो

बादळ री ओटां
खोवैलो,


म्हे आज सुणी है चातगड़ो

धरती रो पाणी
पीवैलो,

म्हे आज सुणी है हाथीड़ो

कूकर री जूणां
जीवैलो,


म्हे आज सुणी है थकां खसम

अब रांड हुवैली
रजपूती,

म्हे आज सुणी है म्यानां में

तरवार रवैली अब
सूती,

तो म्हांरो हिवड़ो कांपै है मूंछ्यां री मोड़ मरोड़
गई,

पीथळ राणा नै लिख भेज्यो, आ बात कठै तक गिणां
सही?


पीथळ रा आखर पढ़तां ही

राणा री आंख्यां लाल
हुई,

धिक्कार मनै हूं कायर हूं

नाहर री एक दकाल
हुई,


हूं भूख मरूं हूं प्यास मरूं

मेवाड़ धरा आजाद
रवै

हूं घोर उजाड़ां में भटकूं

पण मन में मां री याद
रवै,

हूं रजपूतण रो जायो हूं रजपूती करज
चुकाऊंला,

ओ सीस पड़ै पण पाघ नहीं दिल्ली रो मान
झुकाऊंला,

पीथळ के खिमता बादळ री

जो रोकै सूर उगाळी
नै,

सिंघां री हाथळ सह लेवै

बा कूख मिली कद स्याळी
नै?


धरती रो पाणी पिवै इसी

चातग री चूंच बणी
कोनी,

कूकर री जूणां जिवै इसी

हाथी री बात सुणी
कोनी,


आं हाथां में तरवार थकां

कुण रांड कवै है
रजपूती?

म्यानां रै बदळै बैरयाँ री

छात्यां में रैवैली
सूती,

मेवाड़ धधकतो अंगारो आंध्यां में चमचम
चमकैलो,

कड़खै री उठती तानां पर पग पग पर खांडो
खड़कैलो,

राखो थे मूंछ्यां ऐंठ्योड़ी

लोही री नदी बहा
द्यूंला,

हूं अथक लड़ूंला अकबर स्यूं

उजड़्यो मेवाड़ बसा
द्यूंला,

जद राणा रो संदेश गयो पीथळ री छाती दूणी
ही,

हिंदवाणों सूरज चमकै हो अकबर री दुनियां सूनी
ही।


पातळ=प्रताप। पीथळ=कवि पृथ्वीराज
राठौड़ जका महाराणा प्रताप रा साथी अर अकबर रै दरबार रा नवरतनां में सूं एक हा।
अमर
यो
=महाराणा प्रताप रो बेटो अमरसिंह। चेतकड़ो=राणा प्रताप रो
घोड़ो। बाजोट=जीमण सारू बणी काठ री चौकी। आडावळ=अरावली। पण=प्रण। कूकर=कुत्तो।
कड़खो=विजयगान।

ऊपर की फोटो भाई धर्मा की है



01 जून 2010

जगत सुपणे री माया है,

जीवण जग जंजाळ,
जगत सुपणे री माया है,
बीत गए दिन ढळते-
दिन री ढळती छाया है,
हाट - हाट पर ठग सौदागर,लाग्या ठीक ठगाई में,
गहळ नसै में घना ठगीज्या, जीवण बिणज कमाई में,
करम कमाई घाटो लाग्यौ,
मूळ गमाया है,
बीत गए दिन ढळते-
दिन री ढळती छाया है,
हरख्या निरख्या नेड़ा सिरक्या, हिवङै री अळियां- गळियां,
चख चख कर टोळी सूं टळग्या,लोग बतावे आंगळियां,
प्रीत तणी पत गई जगत रा,
लोग हंसाया है,
बीत गए दिन ढळते-
दिन री ढळती छाया है,
बदळ गई पतवारयां, सागण खेत, बदळ गिया हाळी,
बाग़-बगिचां, ठोड ठिकाणे रुंख, बदळ गिया माळी,
टोळी रा पंछिङा टळग्या,
चित भरमाया है,
बीत गए दिन ढळते-
दिन री ढळती छाया है,
गळो भरीजे नाम लेवतां। सुर बिन गीत कियां गाऊं,
बळती सांसां नैण उबळग्या, मर मर जगत जियां जाऊं,
पलकां री गागर में सागर,
जळ भर आया है,
बीत गए दिन ढळते-
दिन री ढळती छाया है,

29 मई 2010

सांवरिया, थू सोयग्यो जाय कठै



चोङै धाङै ढोल - नगाड़े,
लाज लुटले आज अठै,
थुं सोयग्यो जाय कठै,

जलमहार सौदागर बण जद, बोली देतो नीं सरमावे,
स्वारथ री दुनियां में डूबी, मां खुद ही जद भाव बतावे,
भाई निरखे नैण निजारां, बापू मरदंग ताल बजावे,
सुसरो बैद कुठोड़ा खाग्यो, लाजां मरती कांई बतावे,
धरम डूबग्यो सुण सांवरिया,
पाप पसरग्यो देख अठै ,
थू सोयग्यो जाय कठै,

मिनखां में मिनखापण कोनी, तनिक लोभ लाळ में मरग्या,
बोझ मरे पापां सुं धरती, कपटी चोर जुआरी रहग्या,
कहतां बात पडूं लजकाणो, मिनख जका लाखीणा मरग्या,
इज्जत रा रुखवाळा ही जद आंख्यां मीच अंधेरो करग्या,
आतां-जातां सुण-सुण बातां,
हिवङै माहीं होड़ उठै,
थू सोयग्यो जाय कठै,


पंडितजी परखै परनारी, गीता ज्ञान ताक में धरग्या,
माथै ऊपर लोग दिखाऊ, खाली तिलक चनण रा रहग्या,
जा मंदिर में धरम उठाले, पत्थर रा ठाकुर जी रहग्या,
अकरम करता नीं सरमावे, किरतब देख रामजी डरग्या,

धरमाथळ में भगतण नाचै,
सुण थारो ही कुरब घटे,
थुं सोयग्यो जाय कठे,


अबळा रा आंसू घणमूंघा , मोती मोल रेत में रळग्या,
सुपणै रा संसार सजाया, कागद रे पाठे ज्यूँ गलग्या,
बागां रा रुखवाळा जागी, के कानां रे ताळा जङग्या,
निरभै किंकर नींद घुरावे, बाङां जुरङ गधेङा बङग्या,

सांई थारा चेला-चांटी,
बात गमावै नाक कटे,
थुं सोयग्यो जाय कठे,


लुच्चां मौज गरीबां फांसी, चोर-चोर मौसेरा मिळग्या,
रुळा खुळा ऐ भांत भांत रा, खांप खांप रा भेळा भिळग्या,
कांई मिनख घड़े बेमाता, सतजुग रा के सांचा बळग्या,
भार सांसङी सहतां-सहतां, सुण छाती रा छोडा जळग्या,
माटी रा रामतिया बणग्या,
मिनख देख ले आज अठे,
थुं सोयग्यो जाय कठे,

थुं जे सिरजनहार जगत रो, परळै बोल करणियों कुण है,
थुं जे राम मौत नीं बगसै, मन सुं बोल मरणियों कुण है,
थुं राधा री मांग भरणियों, मगसी मांग भरणियो कुण है,
थारी रमत बिगाड़े बिण रो, खाली पेट भरणियों कुण है,
मारण-तारण वाळो थुं ही,
देवां कुण ने दोष अठे,
थुं सोयग्यो जाय कठे,

चोङै धाङै ढोल - नगाड़े,
लाज लुटले आज अठै,

सांवरियां थुं सोयग्यो जाय कठै,

26 मई 2010

थोड़ी सी जिंदगाणी में

काया- माया बादळ छाया,
खोज मिटे
ज्यूँ पाणी में,
मिनखजमारै विष मत घोळी,
थोड़ी सी जिंदगाणी में,
नदी किनारे पांव पसारया, रीजे मत न भोळे में,
है कितनी औकात बावळा, जासि पैल हबोळै में,
बिरथा गाल बजावे झूठा, फ़स कर झामरझोळै में,
अधबीच रामत छोड़ अधूरी,
पलक झपे उठ जाणी में,
मिनखजमारै विष मत घोळी,
थोड़ी सी जिंदगाणी में,

आंख्यां मीच अपुठो दोङै, लारै खाडा कावळ है,
सावचेत हु पग धर करणी, कोनी ठीक ऊतावळ है,
सोने रा डूंगर मत जाणी, अळगा जितरा सावळ है,
चेत रेत में रळ जावेला, तिलक माथला चावळ है,
हाथ मसळतो रह जावेला,
कीं नीं आणी जाणी में,
मिनखजमारै विष मत घोळी,
थोड़ी सी जिंदगाणी में,
बङसी कुणसी जाय बाङ में, लुकसी कुणसी खाळी में,
हीयै माहीं फेर कांगसी, आसी अटक दंताळी में,
भौ भौ भटक बारणै आयो, रह्ग्यो करम खुजाळी में,
ठाणे पूग भुंवाळी खाई, फंसग्यो फेर पंजाळी में,

लख चौरासी फिरौ भटकता,
फेर पिलिज्यो घाणी में,
मिनखजमारै विष मत घोळी,
थोड़ी सी जिंदगाणी में,

माया - मद में भूल मति मन, रहणो ठौङ ठिकाणे में,
पाव रति सारो नी लागे, आयां पछै निसाणै में,
घाणी - माणी खींचा - ताणी, जीवण जग उळझाणै में,
चेत मुसाफिर कीं नीं पङियो, गांठा घणी घुळाणै में,

कुण जाणे किण टेम बुलावो ,
आ जावे अणजाणी में,
मिनखजमारै विष मत घोळी,
थोड़ी सी जिंदगाणी में,
काया- माया बादळ छाया,
खोज मिटे ज्यूँ पाणी में,
मिनखजमारै विष मत घोळी,
थोड़ी सी जिंदगाणी में,

25 मई 2010

पड़दे रे भितर मत झांकी


पड़दे रे भीतर मत झांकी,
ढक्योड़ो भरम उघड़ ज्यासी,
ढक्योड़ो भरम उघड़ ज्यासी,
जीवण में गांठयां घुळ ज्यासी,
थुं जाणै कितरा देख अठै, बैठा है मूंड मुंडायोङा,
थुं जाणै कितरा देख अठै, बुगला नर भेख बणायोङा,
थुं जाणै कितरा देख अठै, मठधारी तिलक लगायोडा,
बैठा कितरा अवधूत अठै, तन माहिं राख़ रमायोङा,
भगत ऱी भक्ति ने मत देख,
धरम ऱी धज्जियाँ उड़ ज्यासी,
पड़दे रे भितर मत झांकी,
धकियोड़ो भरम उघड़ ज्यासी,
पीछे पड़दे ऱी छाया में, थुं जाने छल री माया है,
दस तेरा कै बीसा पंथी, थुं जाने सब उळझाया है ,
गाभां में सैंग उघाड़ा है, हर पांव तिसळता पाया है,
मिनखां ने कांई दोस अठे, बे देव लुढकता आया है,
जमयोङी रंजी मती उङाय,
पेड़ री जङां उखड ज्यासी,
पड़दे रे भितर मत झांकी,
ढकियोङो भरम उघड़ ज्यासी,
भींतां भीतर सुं खोळी है, ऊपर तो रंग रचोळा है,
चोळा तो ऊपर का खोळा, भीतर ले समंद हबोळा है,
देख्यां सुं घण पिसतावैलो, कीं नहीं पोल का गोळा है,
सागर री लैरां देखी पण, भीतर किण ने टंटौळा है,
सोनै रो झोळ उतरता ही,
ठाकुर जी पीतल रळ ज्यासी,
पड़दे रे भीतर मत झांकी,
ढकियोङो भरम उघड़ ज्यासी,
धरम री चादर ऊपर ताण, सुता कुण मौजां माणै है,
कुणी नै नीत बिगाड़ी देख, कुणा रो जीव ठिकाणे है,
करै कुण किरतब काळी रात,बां नै के थुं नहीं जाणे है,
हवा में खोज मंडै बिण रा, पागी थुं पग पिछाणै है,
भेद री बातां नै मत खोल,
पोल रो ढोल बिखर ज्यासी,
पड़दे रे भितर मत झांकी,
ढकियोङो भरम उघड़ ज्यासी,
आप री अपणायत ने देख, अणेसो मन में आवेला,
थारां ने निजरां सूं निहार, घिरणा सूं नाक चढ़ावेला,
परवाङा बांच्या जे पाछा, नेणा री नींद उड़ावेला,
चाले ज्यूँ चालण दे चरखो, आंख्यां री सरम गमावेला,
जीवण सु मति करी खिलवाड़ ,
कागदी फुल बिखर ज्यासी,
पड़दे रे भितर मत झांकी,
ढकियोङो भरम उघड़ ज्यासी,
पड़दे रे भितर मत झांकी, ढकियोङो भरम उघड़ ज्यासी,
ढकियोङो भरम उघड़ ज्यासी, जीवण में गांठयां पड़ ज्यासी,

24 मई 2010

मन घोड़ो बिना लगाम रो


कुण जाणे किण टेम बदल्ज्या,
कोड़ी एक छदाम रो ,
मन घोड़ो बिना लगाम रो,

काया ने घर में पटक झटक, घूमै मौजी असमाना में ,
कुबदी लाखों उत्पात करे, सूतै रे धरज्या कानां में,
महं ढूंढूं बाग़ बगीचा में, ओ छाने राख़ मसाणां में,
हैरान करे काया कल्पे, लाधै नी पलक ठिकाणा में ,
दोड़े हङबङ दङबङ करतो,
है भूखो ख़ाली नाम रो,
मन घोड़ो बिना लगाम रो,

आभो सींवा ही कियां

आभो सींवा ही कियां
सूळी में पायोङा प्राण , जीवां ही कियां,
फाटे गाभै कारी, आभो सीवाँ ही कियां,
जंगल में आग लागी,
बिल में निवास है,
कुणसी अब बाकी,
बचणे री आस है,
सास घुटे मायं, बारै आवाँ ही कियां ,
फाटे गाभै कारी, आभो सीवाँ ही कियां,

कांई पडूतर देवे,
पुछले सवाल रो ,
धणी बण बैठो जियां,
कोई चोरी माल रो,
ताळवै रे जीभ चिपगी, कैवां ही कियां,
फाटे गाभै कारी, आभो सीवाँ ही कियां

13 मई 2010

राजस्थानी कविता

हवेली री पीड़
आँख्या-गीड़, उमड़ती भीड़
सूनी छोड़ग्या बेटी रा बाप !
बुझाग्या चुल्है रो ताप
कुण कमावै, कुण खावै
कुण चिणावै, कुण रेवै !
जंगी ढोलां पर चाल्योड़ी तराड़
बोदी भींता रा खिंडता लेवड़ा
भुजणता चितराम
चारूंमेर लाग्योड़ी लेदरी
बतावै भूत-भविस अ’र वरतमान
री कहाणी ! कीं आणी न जाणी !
आदमखोर मिनख
बैंसग्या पड्योड़ा सांसर ज्यूं
भाखर मांय टांडै
जबरी जूण’र जमारो मांडै !
काकोसा आपरै जींवतै थकां
ई भींत पर
एक कीड़ी नी चढ़णै देवतां
पण टैम रै आगै कीं रो जोर ?
काकोसा खुद कांच री फ्रेम में
ऊपर टंगग्या
पेट भराई रै जुगाड़ मैं
सगळो कडुमो छोड्यो देस
बसग्या परदेस,
ठांवा रै ताळा, पोळ्यां में बैठग्या
ठाकर रूखाळा।
टूट्योड़ी सी खाट
ठाकरां रा ठाट
बीड्यां रो बंडल, चिलम’र सिगड़ी
कुणै में उतर्योड़ो घड़ो
गण्डक अ’र ससांर घेरणै तांई
एक लाठी
अरड़ावै पांगली पीड़ स्यूं गैली
बापड़ी सूनी हवेली !
साभार --- डॉ. एस.आर.टेलर

11 मई 2010

आचार्य महाप्रज्ञ के महानिर्वाण पर आचार्य श्री को सादर श्रदांजलि


तम के नाशक, ज्योति के सपूत,
तुमको नमन है, हे शान्ति दूत,
विश्व पटल पर, जब तक मानव लेश रहेगा,
'महाप्रज्ञ' का ज्ञान, ज्योति बन अवशेष रहेगा,
हर मन के सत्कार, प्रणाम है तुमको मेरा,
मन मे है आभार, जान ये ज्ञान अकूत ,

तम के नाशक, ज्योति के सपूत,
तुमको नमन है, हे शान्ति दूत,
हे ज्योति संत, ये अहिंसा दर्शन जग याद रखेगा,
जो लेगा इसकी राह, अमरता का स्वाद चखेगा,
है मेरा तुम्हें नमन, चरणों मे श्रदा सुमन है,
नमन है तुम्हारे दिव्य ज्ञान को, नमन तुम्हे है, हे सपूत ,

तम के नाशक, ज्योति के सपूत,
तुमको नमन है, हे शान्ति दूत ,

आचार्य महाप्रज्ञ के महानिर्वाण पर आचार्य श्री को सादर श्रदांजलि

25 अप्रैल 2010

रामदेव हुंकार भरो


रामदेव हुंकार भरो
भारत का बेडा पार करो
तुम चलो क्षितिज की और संत,
हो जाये घोर निशा का अंत,
पाप, दुराचार का आगे बढ़ संहार करो,
रामदेव हुंकार भरो।
बढ़ रहा उत्पीडन गायों पर ,
सब देख मूक है, इन अन्यायों पर,
इन निरीहों पर अब उपकार करो,
रामदेव हुंकार भरो,
तुम सदा काटते प्राणी रोग,
औषध उपचार से बढ़कर है योग,
अब इस रुग्न स्थिति का उपचार करो,
रामदेव हुंकार भरो,
आदरणीय स्वामी जी को राष्ट्र के स्वाभिमान को जगाने को समर्पित,
रामगोपाल जाट

17 अप्रैल 2010

खोयो ऊंट घडै मे ढूंढै क़सर नहीं है स्याणै में




सुख को कनको उड़तो कीया काण राख दी काणै में
खोयो ऊँट घडै मै ढूडै कसर नहीं है स्याणै में
भूल चूक सब लेणी देणी ठग विद्या व्यापार करयो
एक काठ की हांडी पर ही दळियो सौ बर त्यार करयो
बस पङता तो एक न छोड्यो च्यारू मेर सिवाणै मै
खोयो ऊँट घडै में ढूँढे कसर नहीं है स्याणै मै



डाकण बेटा दे या ले , आ भी बात बताणी के
तेल बड़ा सू पैली पीज्या बां की कथा कहाणी के
भोळा पंडित के ले ले भागोत बांच कर थाणै मे
खोयो ऊंट घडै मे ढूंढै क़सर नहीं है स्याणै में

जका चालता बेटा बांटै ,बै नितकी प्रसिद्ध रैया
बिगड़ी तो बस चेली बिगड़ी संत सिद्ध का सिद्ध रैया
नै भी सिद्ध रैया तो कुण सो कटगो नाक ठिकाणै मे
खोयो ऊंट घडै मे ढूंढै क़सर नहीं है स्याणै में

बडै चाव सूँ नाम निकाल्यो , होगो घर हाळा भागी
लगा नाम कै बट्टो खुद कै लखणा बणरयो निर भागी
तूं उखडन सूँ नहीं आपक्यो थकग्यो गाँव जमाणै में
खोयो ऊंट घडै मे ढूंढै क़सर नहीं है स्याणै में
लेखक - भागीरथ सिंह जी

08 अप्रैल 2010

राजस्थानी रंग की कवितायेँ






मत पूछे के ठाठ भायला


मत पूछे के ठाठ भायला पोळी मै खाट भायला
पनघट पायल बाज्या करती ,सुगनु चुड़लो हाथा मै
रूप रंगा रा मेला भरता ,रस बरस्या करतो बातां मै
हान्स हान्स कामन घणी पूछती , के के गुज़री रात्यां मै
घूंघट माई लजा बीनणी ,पल्लो देती दांता मै
नीर बिहुणी हुई बावड़ी , सूना पणघट घाट भायला
पोळी मै है खाट भायला





छल छल जोबन छ्ळ्क्या करतो ,गोटे हाळी कांचली
मांग हींगलू नथ रो मोती ,माथे रखडी सांकली
जगमग जगमग दिवलो जुगतो ,पळका पाडता गैणा मै
घनै हेत सूं सेज सजाती ,काजल सारयां नैणा मै
उन नैणा मै जाळा पड़गा ,देख्या करता बाट भायला
पोळी मै खाट भायला



अतर छिडकतो पान चबातो नैलै ऊपर दैलो
दुनिया कैती कामणगारो ,अपने जुग को छैलो हो
पण बैरी की डाढ रूपि ना, इतनों बळ हो लाठी मैं
तन को बळ मन को जोश झळकणो ,मूंछा हाली आंटी मै
इब तो म्हारो राम रूखाळो , मिलगा दोनूं पाट भायला
पोळी मै खाट भायला




बिन दांता को हुयो जबाडो चश्मों चढ्गो आख्याँ मै
गोडा मांई पाणी पडगो जोर बच्यो नी हाथां मै
हाड हाड मै पीड पळै है रोम रोम है अबखाई
छाती कै मा कफ घरडावै खाल डील की है लटक्याई
चिटियो म्हारो साथी बणगो ,डगमग हालै टाट भायला
पोळी मै है खाट भायला

07 अप्रैल 2010

माँ



ईश्वर का वरदान है माँ
हम बच्चों की जान है माँ
मेरी नींदों का सपना माँ
तुम बिन कौन है अपना माँ
तुमसे सीखा पढ़ना माँ
मुश्किल कामों से लडना माँ
बुरे कामों में डाँटती माँ
अच्छे कामों में सराहती माँ
कभी मित्र बन जाती माँ
कभी शिक्षक बन जाती माँ
मेरे खाने का स्वाद है माँ
सब कुछ तेरे बाद है माँ
बीमार पडूँ तो दवा है माँ
भेदभाव ना कभी करे माँ
वर्षा में छतरी मेरी माँ
धूप में लाए छाँव मेरी माँ
कभी भाई, कभी बहन, कभी पिता बन जाती माँ
ग़र ज़रूरत पडे तो दुर्गा भी बन जाती माँ
ऐ ईश्वर धन्यवाद है तेरा दी मुझे जो ऐसी माँ
है विनती एक यही तुमसे हर बार बने ये हमारी माँ

06 अप्रैल 2010

कुछ अच्छी कवितायेँ






रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,


आदमी भी क्या अनोखा जीव है ।
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है ।
जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते ।
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।
आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का
आज उठता और कल फिर फूट जाता है ।
किन्तु, फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है ।
मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी,
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?
मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ ।
और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ ।
मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है ।
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।
स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे
रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे ।
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।


04 अप्रैल 2010

मेरी प्रिय कवितायेँ



छिप-छिप अश्रु बहाने वालों

छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है
सपना क्या है, नयन सेज पर
सोया हुआ आँख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों
कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है
माला बिखर गयी तो क्या है
खुद ही हल हो गयी समस्या
आँसू गर नीलाम हुए तो
समझो पूरी हुई तपस्या
रूठे दिवस मनाने वालों, फटी कमीज़ सिलाने वालों
कुछ दीपों के बुझ जाने से, आँगन नहीं मरा करता है
खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चाँदनी
पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वालों, चाल बदलकर जाने वालों
चँद खिलौनों के खोने से, बचपन नहीं मरा करता है
लाखों बार गगरियाँ फ़ूटी,
शिकन न आयी पर पनघट पर
लाखों बार किश्तियाँ डूबीं,
चहल पहल वो ही है तट पर
तम की उमर बढ़ाने वालों, लौ की आयु घटाने वालों,
लाख करे पतझड़ कोशिश पर, उपवन नहीं मरा करता है।
लूट लिया माली ने उपवन,
लुटी ना लेकिन गंध फ़ूल की
तूफ़ानों ने तक छेड़ा पर,
खिड़की बंद ना हुई धूल की
नफ़रत गले लगाने वालों, सब पर धूल उड़ाने वालों
कुछ मुखड़ों के की नाराज़ी से, दर्पण नहीं मरा करता है।



- गोपालदास "नीरज"

संस्कृत विद्यालय का उद्घाटन

श्री बृजमोहन खिचड का स्वागत करते ग्रामीण जन
जसवंत गढ़ सरपंच श्री कन्हैया लाल प्रजापत का स्वागत करते फतु राम दुसाद

संभागीय संस्कृत शिक्षा अधिकारी श्री विष्णु शर्मा का स्वागत कर प्रतीक चिन्ह देते श्री भगवान दास






















राजकीय उच्च प्राथमिक संस्कृत विद्यालय कसुम्बी , जाखला का उद्घाटन समारोह


समारोह में उपस्थित श्री हरजी राम जी बुरडक , लाडनूं प्रधान श्री भोलाराम जी, श्री जगन्नाथ जी बुरडक , श्री चतरा राम जी व् अन्य गणमान्य नागरिक
आगंतुक ग्रामवासी व अतिथि

स्वागत गायन की रस्म





युवा ग्रामवासी



विद्यालय की एक झलक



03 अप्रैल 2010

मेरी कवितायेँ




आग की भीख
धुँधली हुई दिशाएँ, छाने लगा कुहासा
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँसा
कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है
मुंह को छिपा तिमिर में क्यों तेज सो रहा है
दाता पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे
प्यारे स्वदेश के हित अँगार माँगता हूँ
चढ़ती जवानियों का श्रृंगार मांगता हूँ
बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है
कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है
मँझदार है, भँवर है या पास है किनारा?
यह नाश आ रहा है या सौभाग्य का सितारा?
आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा
भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा
तमवेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ
ध्रुव की कठिन घड़ी में, पहचान माँगता हूँ
आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है
बलपुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है
अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ डेर हो रहा है
है रो रही जवानी, अँधेर हो रहा है
निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है
निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है
पंचास्यनाद भीषण, विकराल माँगता हूँ
जड़ताविनाश को फिर भूचाल माँगता हूँ
मन की बंधी उमंगें असहाय जल रही है
अरमान आरजू की लाशें निकल रही हैं
भीगी खुशी पलों में रातें गुज़ारते हैं
सोती वसुन्धरा जब तुझको पुकारते हैं
इनके लिये कहीं से निर्भीक तेज ला दे
पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे
उन्माद, बेकली का उत्थान माँगता हूँ
विस्फोट माँगता हूँ, तूफान माँगता हूँ
आँसू भरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे
मेरे शमशान में आ श्रंगी जरा बजा दे
फिर एक तीर सीनों के आरपार कर दे
हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे
आमर्ष को जगाने वाली शिखा नयी दे
अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे
विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ
बेचैन जिन्दगी का मैं प्यार माँगता हूँ
ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे
जो राह हो हमारी उसपर दिया जला दे
गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे
इस जाँच की घड़ी में निष्ठा कड़ी, अचल दे
हम दे चुके लहु हैं, तू देवता विभा दे
अपने अनलविशिख से आकाश जगमगा दे
प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ
तेरी दया विपद् में भगवान माँगता हूँ


- रामधारी सिंह दिनकर

02 अप्रैल 2010

मेरी प्रिय कवितायेँ





कोशिश करने वालों की

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।



- हरिवंशराय बच्चन (Harivansh Rai Bachchan) (few people think that it is from सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला")

मेरी प्रिय कविता



मैं अपने इस ब्लॉग पर अगले कुछ दिनों तक अपनी प्रिय कविताओं को पेश करूँगा
उसी श्रंखला मैं आज पेश है यह कविता




विजयी के सदृश जियो रे
- रामधारी सिंह दिनकर (Ramdhari Singh Dinkar)


वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा संभालो
चट्टानों की छाती से दूध निकालो
है रुकी जहाँ भी धार शिलाएं तोड़ो
पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो
चढ़ तुंग शैल शिखरों पर सोम पियो रे
योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रे
जब कुपित काल धीरता त्याग जलता है
चिनगी बन फूलों का पराग जलता है
सौन्दर्य बोध बन नयी आग जलता है
ऊँचा उठकर कामार्त्त राग जलता है
अम्बर पर अपनी विभा प्रबुद्ध करो रे
गरजे कृशानु तब कंचन शुद्ध करो रे
जिनकी बाँहें बलमयी ललाट अरुण है
भामिनी वही तरुणी नर वही तरुण है
है वही प्रेम जिसकी तरंग उच्छल है
वारुणी धार में मिश्रित जहाँ गरल है
उद्दाम प्रीति बलिदान बीज बोती है
तलवार प्रेम से और तेज होती है
छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाये
मत झुको अनय पर भले व्योम फट जाये
दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है
मरता है जो एक ही बार मरता है
तुम स्वयं मृत्यु के मुख पर चरण धरो रे
जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे
स्वातंत्र्य जाति की लगन व्यक्ति की धुन है
बाहरी वस्तु यह नहीं भीतरी गुण है
वीरत्व छोड़ पर का मत चरण गहो रे
जो पड़े आन खुद ही सब आग सहो रे
जब कभी अहम पर नियति चोट देती है
कुछ चीज़ अहम से बड़ी जन्म लेती है
नर पर जब भी भीषण विपत्ति आती है
वह उसे और दुर्धुर्ष बना जाती है
चोटें खाकर बिफरो, कुछ अधिक तनो रे
धधको स्फुलिंग में बढ़ अंगार बनो रे
उद्देश्य जन्म का नहीं कीर्ति या धन है
सुख नहीं धर्म भी नहीं, न तो दर्शन है
विज्ञान ज्ञान बल नहीं, न तो चिंतन है
जीवन का अंतिम ध्येय स्वयं जीवन है
सबसे स्वतंत्र रस जो भी अनघ पियेगा
पूरा जीवन केवल वह वीर जियेगा!

27 मार्च 2010

सकारात्मक सोच


सकारात्मक सोच बर्फ की डल्ली है जो दूसरे से अधिक खुद को ठंडक पहुँचाती है। यदि आप इस मंत्र का प्रयोग कुछ महीने तक कर सके तब आप देखेंगे कि आपके अंदर कितना बड़ा क्रांतिकारी परिवर्तन हो गया है। जो काम सैकड़ों ग्रंथों का अध्ययन नहीं कर सकता, सैंकड़ों सत्संग नहीं कर सकते, सैंकड़ों मंदिर की पूजा और तीर्थों की यात्राएँ नहीं कर सकते, वह काम सकारात्मकता संबंधी यह मंत्र कर जाएगा। आपका व्यक्तित्व चहचहा उठेगा। आपके मित्रों और प्रशंसकों की लंबी कतार लग जाएगी।
आप थोड़ा सा समय लगाइए और अपनी जिंदगी की खुशियों और दुःखों के बारेमें सोचकर देखिए। मुझे पक्का भरोसा है कि आप यही पाएँगे कि जिन चीजों को याद करने से आपको अच्छा लगता है, वे आपकी जिंदगी को खुशियों से भर देती हैं और जिन्हें याद करने से बुरा लगता है, वे आपकी जिंदगी को दुखों से भर देती हैं।
आप बहुत बड़े मकान में रह रहे हैं लेकिन यदि उस मकान से जुड़ी हुई स्मृतियॉं अच्छी और बड़ी नहीं हैं तो वह बड़ा मकान आपको कभी अच्छा नहीं लग सकता। इसके विपरीत यदि किसी झोपड़ी में आपने जिंदगी के खूबसूरत लम्हे गुजारे हैं, तो उस झोपड़ी की स्मृति आपको जिंदगी का सुकून दे सकती है।
पुराने जमाने की बात है। दो साधु किसी जंगल के समीप एक कुटिया बनाकर रहते थे। उनमें से एक अधेड़ था, जो हर

परिस्थिति में शांत और प्रसन्न रहता था, जबकि दूसरा युवा था। वह थोड़ा तुनकमिजाज था, बात-बात में बिगड़ जाता था। एक बार दोनों यात्रा पर निकले। काफी दिन तक घूमते रहे। लौटने पर उन्होंने देखा कि उनकी कुटिया के बरामदे का छप्पर आंधी-तूफान के कारण उड़ गया है। अपनी टूटी झोपड़ी देखकर युवा साधु ईश्वर को कोसते हुए बोला, 'हे ईश्वर, हम हमेशा तेरे नाम का जाप करते हैं, फिर भी तूने हम गरीबों का छप्पर तोड़ दिया। यदि तू अपने भक्तों की रक्षा नहीं करेगा, तो फिर कौन करेगा?' युवा साधु बोले जा रहा था पर अधेड़ साधु मौन खड़ा था। उसकी आंखें आकाश की ओर टिकी थी और उनसे आंसू बह रहे थे। परमात्मा के प्रति आभार से उसका रोम-रोम पुलकित हो रहा था।
अधेड़ साधु को मौन देख युवा साधु को बेहद आश्चर्य हुआ। लेकिन अधेड़ साधु ने उसके मन के भाव जान लिए थे। वह आकाश की ओर देखते हुए बोला, 'वाह ईश्वर, तेरी लीला अपार है।
हम जब माता के गर्भ में थे, तब वहां तूने हमारी रक्षा की। मित्रों की प्रीति से हमें पुष्ट किया। फिर संत-महात्माओं का सत्संग दिया ताकि हम सत्य के मार्ग पर चलें।
तू हरेक परिस्थिति में हमारी रक्षा करता आया है। इस बार भी आंधी-तूफान का रुख तूने ही बदला होगा, इसलिए आधा छप्पर ही टूटा वरना तो पूरी झोपड़ी ही नष्ट हो जाती।' फिर उसने युवा साधु की ओर देखकर कहा, 'भाई, जो घटना घटी है उसका तू सीधा अर्थ ले। जीवन में विघ्न-बाधाएं आने पर भी जिसने धैर्य नहीं खोया और अपने भीतर जितना अधिक उत्साह पैदा किया, वह उतना ही महान बना। जीवन में सफलता के लिए हमें सदैव अपनी सोच सकारात्मक रखनी चाहिए।' उसकी यह बात सुनकर युवा साधु उसके समक्ष नतमस्तक हो गया।
इस बारे में एक कहानी है- एक सेठजी प्रतिदिन सुबह मंदिर जाया करते थे। एक दिन उन्हें एक भिखारी मिला। इच्छा न होने के बाद भी बहुत गिड़गिड़ाने पर सेठजी ने उसके कटोरे में एक रुपए का सिक्का डाल दिया। सेठजी जब दुकान पहुँचे तो देखकर दंग रह गए कि उनकी तिजोरी में सोने की एक सौ मुहरों की थैली रखी हुई थी। रात को उन्हें स्वप्न आया कि मुहरों की यह थैली उस भिखारी को दिए गए एक रुपए के बदले मिली है।
जैसे ही नींद खुली वे यह सोचकर दुखी हो गए कि उस दिन तो मेरी जेब में एक-एक रुपए के दस सिक्के थे, यदि मैं दसों सिक्के भिखारी को दे देता तो आज मेरे पास सोने की मुहरों की दस थैलियाँ होतीं। अगली सुबह वे फिर मंदिर गए और वही भिखारी उन्हें मिला। वे अपने साथ सोने की सौ मुहरें लेकर गए ताकि इसके बदले उन्हें कोई बहुत बड़ा खजाना मिल सके। उन्होंने वे सोने की मुहरें भिखारी को दे दी।

वापस लौटते ही उन्होंने तिजोरी खोली और पाया कि वहाँ कुछ भी नहीं था। सेठजी कई दिनों तक प्रतीक्षा करते रहे। उनकी तिजोरी में कोई थैली नहीं आई। सेठजी ने उस भिखारी को भी ढुँढवाया लेकिन वह नहीं मिल सका। उस दिन से सेठजी दुखी रहने लगे।

क्या आप यह नहीं समझते कि सेठजी ने यह जो समस्या पैदा की, वह अपने लालच और नकारात्मक सोच के कारण ही पैदा की। यदि उनमें संतोष होता और सोच की सकारात्मक दिशा होती तो उनका व्यक्तित्व उन सौ मुहरों से खिलखिला उठता। फिर यदि वे मुहरें चली भी गईं, तो उसमें दुखी होने की क्या बात थी, क्योंकि उसे उन्होंने तो कमाया नहीं था। लेकिन सेठजी ऐसा तभी सोच पाते, जब वे इस घटना को सकारात्मक दृष्टि से देखते। इसके अभाव में सब कुछ होते हुए भी उनका जीवन दुखमय हो गया।

इसलिए यदि आपको सचमुच अपने व्यक्तित्व को प्रफुल्लित बनाना है तो हमेशा अपनी सोच की दिशा को सकारात्मक रखिए। किसी भी घटना, किसी भी विषय और किसी भी व्यक्ति के प्रति अच्छा सोचें, उसके विपरीत न सोचें। दूसरे के प्रति अच्छा सोचेंगे, तो आप स्वयं के प्रति ही अच्छा करेंगे। कटुता से कटुता बढ़ती है। मित्रता से मित्रता का जन्म होता है। आग आग लगाती है और बर्फ ठंडक पहुँचाती है।

शिक्षा विकाश समिति कसुम्बी का सम्मान समारोह

समारोह में उपस्थित अतिथि श्री भेराराम जी चौधारी, श्री फुल सिंह राठोर , श्री मोती सिंह राठोर , श्री गीगाराम चंदेलिया , श्री बोदुराम बिडियासर
डॉ रामगोपाल जाट को डॉ की उपाधि मिलने पर सम्मानित किया गया

ग्राम की प्रतिभावान बालिका को सम्मानित करते श्री बोदुराम जी बिडियासर



डॉ रामगोपाल जाट को प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित करते चुरू जिला जज श्री मोती सिंह राठोर






समारोह में अतिथि श्री बोदू राम जी बिडियासर का सम्मान करते श्री खींवराज जी स्वामी




राजकीय उच्च प्राथमिक संस्कृत विद्यालय कसुम्बी, जाखला का उद्घाटन समारोह

समारोह को संबोधित करते संस्कृत शिक्षा अजमेर संभाग के संभागीय संस्कृत शिक्षा अधिकारी श्री विष्णु शर्मा
समारोह में उपस्थित ग्रामवासी

समारोह में उपस्थित ग्रामवासी


समारोह में उपस्थित ग्राम की महिलाएं




समारोह में उपस्थित ग्रामवासी









राजकीय उच्च प्राथमिक संस्कृत विद्यालय कसुम्बी , जाखला का उद्घाटन समारोह

समारोह में उपस्थित गणमान्य नागरिक
विद्यालय के शिलालेख का अनावरण करने जाते माननीय मंत्री श्री हरजी राम बुरडक







राजकीय उच्च प्राथमिक संस्कृत विद्यालय कसुम्बी, जाखला का उद्घाटन समारोह

माननीय श्री हरजीराम जी बुरडक, कृषि पशुपालन व् मत्स्य पालन मंत्री, राजस्थान सरकार, जयपुर

राजकीय उच्च प्राथमिक संस्कृत विद्यालय कसुम्बी, जाखला का उद्घाटन समारोह

माननीय मंत्री महोदय को प्रतीक चिन्ह भेंट करते कसुम्बी सरपंच चौधरी श्री पूरना राम जी
कार्यक्रम को संबोधित करते संस्कृत शिक्षा के सम्भागीय अधिकारी श्री विष्णु शर्मा

समारोह का सञ्चालन करते विद्यालय के प्रेरक व निर्माणकर्ता डॉ रामगोपाल जाट



माननीय मंत्री जी द्वारा संबोधन व आशीर्वचन